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वि० सं० २०७४- ११०८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कारण है ? सूरिजी के उच्छ सरल एवं शान्तिप्रद बचनों को सुनकर उसके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी । तपित वासोच्छ्रास की प्रबलता से यह संष्ट ज्ञात होता था कि वह किसी महान् दुःख से दुखित थी वह बोलने व अपने भावों को यथावत् व्यक्त करने में हिचकिचा रही थी पर सूरीश्वरजी ने प्रदायक आश्वा सन सूचक शब्दों में पूछा तब उस बहिन ने अपना हाल निम्न प्रकारेण सुनाया ।
महान् ! मेरा नाम रूपसुन्दरी है। एक दिन मैं राज-महलों में रहने वाली मोतियों से भी मंहगी थी पर दुर्दैव वशात् आज मेरी यह दशा हुई है कि इस भयावह अरण्य में भी मुझे अकेलो को ही रहना पड़ा है। अभी ही पुत्र को जन्म दिया है और येनकेन प्रकारेण फल फूलों के आधार पर मैं अपना जीवन यापन कर रही हूँ । प्रभो ! मेरी कष्टजनक हालत का दुःखानुभव मुझे ही है शत्रु को भी परमात्मा यकायक ऐसा दुःख प्रदान न करे | सूरिजी ने रानी का हाल सुनकर उसको धैर्य दिलाते हुए कहा - माता उद्विग्न एवं खिन्न होने का समय नहीं है । कर्मों की करालता के सन्मुख तुम हम जैसे साधारण पुरुष को तो क्या ? पर तीर्थङ्कर चक्रवर्ती जैसे अनन्त शक्ति के धारक पदवी घरों का भी वश नहीं चलता है कर्मों की स्वाभाविक गति ही अत्यन्त विचत्र है अतः स्वोपार्जित पुरातन पापकर्मों का इस प्रकार कठोर उदय समझ करके ही सर्व प्रकारेण शान्तिपूर्वक सहन करते रहना चाहिये । अब किञ्चिन्मात्र भी मत घबराओ सब तरह से आनन्द एवं कल्याण ही होगा । इस तरह रूपसुन्दरी को कर्म - महात्म्य बताते हुए शांत्वना प्रदान कर आचार्यश्री स्वयं पश्वासरा में आये और योग्य श्रावकों को एतद्विषयक सर्वप्रकारेण अनुकूल सूचना दी। आचार्यश्री के उक्त उचित परामर्श को पाकर श्रीसंघ के प्रतिष्ठित श्रावक सूरिजी कथित निर्दिष्ट स्थान पर गये और रूपसुन्दरी व उनके नवजात शिशु को बड़े ही सन्मान पूर्वक अपने घर पर ले आये, उनकी अच्छी तरह से हिफाजत कर उन्हें हर तरह से अपनाने का श्रेय सम्पादन किया ।
रानी रूपसुन्दरी भी आचार्यश्री शीलगुण सूरि का महान उपकार समझ कर उनकी परम भक्तिवान् श्राविका बनगई और सूरीश्वरजी के नित्यप्रति अनुपम उपदेशों को सुनकर अपने दिन आनन्द पूर्वक व्यतीत करने लगी । उसका बच्चा जो वन में जन्मा था और वन में जन्मने के कारण वनराज नामाङ्कित था द्वितीया के चन्द्र के समान नित्यप्रति हर एकबातों में बढ़ रहा था । धार्मिक पवित्र संस्कारों से ओतप्रोत अपनी माता के साथ में वनराज भी प्रतिदिन सूरीश्वरजी के उपाश्रय में आया जाया करता था । इससे उसके कोमल वज्ञस्थल पर धार्मिक संस्कारों का आश्चर्यकारी प्रभाव पड़ा जब वनराज क्रमशः शिक्षा प्राप्त करने योग्य हुआ तो धार्मिक शिक्षा के साथ ही साथ राजकीय एवं व्यापारिक शिक्षा का भी अच्छा प्रबन्ध कर दिया । वनराज भी कुशाग्रमति एवं व्यवहार कुशल था । अतः उसने कुछ ही समय में हर एक विषयों में आशातीत प्रगति करली |
एक समय वनराज हवाखोरी के लिये जंगल में गया था। वहाँ उसने कई गवालों को गायें चराते हुए देखा | किन्हीं बातों के स्वाभाविक प्रसङ्ग से वनराज ने अपने हृदयान्तर्हित उद्गारों को व्यक्त करते हुए गोपालों से नये राज्य - स्थापन करने के विषय में कहा। इस पर एक प्रतिष्ठित गोपाल ने कहा -- यदि आप मेरे नाम से नया नगर व नया राज्य आबाद करना चाहें तो मैं आपको एक ऐसा उत्तम स्थान बताऊँ कि जिसके आधार पर सब कार्य सुगमता पूर्वक किये जासके । वनराज ने गोपाल की उक्त हितकर बात को सहर्ष स्वीकार करली और गोपाल ने भी पूर्व दर्शित एक सिंह के सामने बकरे के द्वारा बतलाई गई वीरता अद्भुत स्थान को नवराज्य स्थापना के लिये बतला दिया। गवाल का नाम 'अहिल्ल' था अतः नवीन नगर भी दर पत्तन नाम से बसाने का निश्चय कर लिया। सायंकाल के समय जब वनराज अपने घर आया तब उसने गोपालों के साथ हुए अखिल वृत्त को सूरीश्वरजी की सेवा में कइ सुनाया । सूरिजी ने भी अपने स्वरोदय एवं निमित्त ज्ञान से भविष्य के लाभ को जान कर वनराज के इस अनुपम उत्साह को और
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