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श्राचार्य कक्कसूरि का जीवन]
[ओसवाल सं० १४७४-१५०८
भी अधिक वर्धित किया । बस, फिर तो था ही क्या ? वनराज ने भी अपने से वयस्थविर, ज्ञान स्थविरों के उचित परामर्शानुसार उक्त उन्नत भूमि पर छड़ी रोप दी । जब मनुष्य के शुभ कमों का उदय होता है, सुकृत पुञ्ज का आधिक्य रहता है तब तत्सम्बन्धी अखिल निमित्त भी अच्छे ही मिल जाते हैं । तदनुसार वनराज को भू गर्भ से अक्षय द्रव्य राशि प्राप्त होगई। अब तो उसके उक्त विचार और भी अधिक परिपक्कावस्था को प्राप्त होगये । उसका उत्साह द्विगुणित होगया। उसने एक ही साथ राजमहल, देवमन्दिर और गुरु महाराज के उपाश्रय, इन तीनों की नीव एक साथ ही डाली। नगर सम्बन्धी उचित सामग्री के तैय्यार हो जाने पर उसने मरुधरवासी अनेक उपकेशवंशियों, श्रीमालों, प्राग्वष्टों को बहुत सन्मानपूर्वक आमन्त्रित किये और उन्हें हर एक तरह की अनुकूल सुविधाएं प्रदान की। जैसे-भूमि का कर (टेक्स) नहीं लेना, उच्च एवं योग्य पदों पर आसीन करके उनको हरएक तरह से सम्मानित करना, नगर में अग्रगण्य स्थानों को देना इत्यादि । इस प्रकार के उचित आदर को प्राप्त कर व अनेक प्रकार की अनुकूल सुविधाओं के प्रलोभन से बहुत से लोग आ आ करके उक्त नवीन नगर में बसने लग गये।।
वि० सं०८०२ के वैशाख शुक्ला तृतीया के रोहिणी नक्षत्र में अणहिल्लपुर पट्टन में गुरु महाराज के वासक्षेप पूर्वक वनराज का सिंहासनाभिषेक होगया। ठीक उसी समय वल्लभी से बलाह गौत्री शाह धवल को बड़े ही सम्मान पूर्वक बुलवाया जिनको सुवर्ण पद अकसीस कर नगर सेठ बनाये तब से धवल की सन्तान सेठ नाम से मशहूर हुई-गज्याभिषेकानन्तर वनराज ने अपने पूर्व परिचित चाम्पा शाह को मन्त्री पद पर नियुक्त किया । चाम्पा शाइ स्वयं राजनीतिज्ञ एवं व्यवहार कुशल था । अतः उनके मन्त्रीत्व में वनराज के
राज्य ने कुछ ही समय में आशातीत उन्नति करली। इसके सिवाय भी अन्य महाजनों को योग्य स्थान में नियुक्त कर वनराज ने अपने राज्य की नींव को सुदृढ़ बनाने का स्तुत्य प्रयत्न किया जो बहुत अंशों में यथावत् सफल भी हुआ। अनेक प्रकार के अनुकूल साधनों के सद्भाव से दिन प्रतिदिन नगर की आबादी, व्यापारिक उन्नति बढ़ती गई। वास्तव में जहां व्यापारी और व्यापार की उन्नति होती है वहां आबादी बढ़ने में देर भी क्या लगती है।
आचार्य प्रवर श्री शीलगुण सूरि और आपके शिष्य श्री देवचन्द्रसूरि का प्रभाव वर्धक व्याख्यान हमेंशा होता था । धार्मिक विषयों के स्पष्टीकरण के साथ ही साथ राजकीय गम्भीर विषयों पर भी समयानुकूल प्रकाश डाला जाता था। राजा के साथ प्रजा का कैला सम्बन्ध होना चाहिये ? व प्रजा के साथ राजा का क्या कर्तव्य है ? राजा प्रजा को उन्नति के मुख्यतया क्या २ उपाय हैं ? राष्ट्र के साथ धर्म का कैसा सम्बन्ध होना चाहिये इत्यादि विषयों पर सामान्यतया हमेशा प्रकाश डाला जाता था । व्याख्यान के सिलसिले में एक दिन आचार्यश्री ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि-व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और धर्म की उन्नति में मुख्य कारण संगठन है । संगठन में एक ऐसी अपूर्व शक्ति रही हुई है कि उसकी समानता लन योद्धाओं को विच्छिा शक्ति भी नहीं कर सकती है। व्यक्ति भिन्न २ प्रकृति वाला होता है पर वह जातीय संगठन में संगठित हो जाने पर स्वच्छाचारी या जीर्ण शक्ति नहीं बन सकता है। जातियों के प्रथक २ होने पर भी यदि वह एक विशेष समाज में संगठित हो तो उसमें दुःशील, दुराचार बढ़ नहीं सकता है और न किसी विनाशकारी शक्ति का प्रादुर्भाव ही हो सकता है। समाज के अलग २ होने पर भी यदि धर्म संगठन की सुदृढ़ शक्ति-सम्बन्ध से सम्बन्धित हो तो फूट, कुसम्प रूपी चोर घुस ही नहीं सकता है । धर्म संगठन धर्मोपदेशकों के आधार पर अवलम्बित है । यदि एक श्रद्धा प्ररूपना वाले एक ही आचार वाले धर्मोपदेशक होते हैं तो धार्मिक संगठन बड़ा ही मजबूत रहता है। इसके विपरीत जहां भिन्न २ श्रद्धा, प्ररूपना एवं आचरना वाले धर्मोपदेशक होते हैं; उनसे धर्म के नाम पर जनता में उतनी ही अधिक राग, द्वेष, कलह, कदाग्रह, फूट, कुसम्प फैलकर संगठन रूपी दुर्ग का एक २ जमा हुआ पत्थर पृथक् २ हो संसार का भयंकर पतन होता जाता पाटण की जनता का संघठन
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