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________________ वि० सं० १०७४-११०८] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है। इत्यादि संगठन विषयक हृदयग्राही उपदेश दिया जिसका राजा प्रजा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । धार्मिक रासाउन शक्ति को यथावत् बनाये रखने के लिये आचार्यश्री के उक्त उपदेशानुसार राजा वनराज चावड़ ने चतुर्विध श्री संघ को एकत्रित कर पाटण शहर के लिये सबके परामानुसार यह मर्यादा बांधदी कि पाटण में सिवाय चैत्यवासियों के कोई भी श्वेताम्बर साधु नहीं ठहर सकता है। यदि अन्य साधुओं को ठहरना ही होवे तो वे चैत्यवासियों के परामर्शानुसार ही ठहर सकते हैं। उक्त प्रस्ताव में आचार्यश्री शीलगुणसूरिजी को न बो कोई निजी स्वार्थ था और न किन्हीं भावनाओं में एतद्विषयक परिवर्तन ही करना था। शीलगुणसूरि तो निवृत्ति कुल के आचार्य थे पर उस समय पाटण में अनेक गच्छ के चैत्यवासियों का ही आना जाना और चैत्यवासियों के ठहरने योग्य ही चैत्य, उपाश्रय थे। अतः किसी को भी इस विषय की रोक टोक नहीं थी। केवल पाटण के राजा प्रजा को यही भय था कि चैत्यवासियों के अलावा दूसरे साधु क्रिया उद्धारक एवं सुविहितों के बहाने से हमारी संगठित शक्ति को छिन्न विछिन्न न कर डालें । वास्तव में उनका उक्त विचार भी था यथार्थ एवं दूरदर्शितापूर्ण ही था। . पाटण के श्रीसंघ का किया हुआ ठहराव करीब पौने तीन सौ वर्ष पर्यन्त धारा प्रवाहिक रूप में चलता रहा। यही कारण था कि आचार्यश्री सिद्धसूरि के शासन में पाटण सर्व प्रकारेण उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ था । जैनसंघ की पर्याप्त श्राबादी थी। जैन समाज तन, धन, कुटुम्ब परिवार से पूर्ण सुखी था। उस समय पाटण में कई अरबपति और करीब ढाई हजार कोट्याधीश रहते थे। उस समम लक्षाधीश तो साधारण गृहस्थों की संख्या में गिने जाते थे। अतः उनकी तो संख्या ही नहीं थी। इन सबों में परस्पर भ्रातृभावजन्य प्रेम एवं धर्म स्नेह का नाता था। सर्वत्र स्नेह का ही साम्राज्य था। कलह कदाग्रह, इा, फूट ने अपनी अवहेलना का स्थान देख कर पाटण को दूर से ही त्याग दिया था। पाटण नगर में बाप्पनाग गौत्रीय नाहटा जाति का श्रीचंद नामक कोट्याधीश व्यापारी रहता था। आपका व्यापार भारत पर्यन्त ही परिमित नहीं था किन्तु पाश्चात्य प्रदेशों पर्यन्त उग्र रूप से था । जल एवं स्थल दोनों ही मार्ग से व्यापार प्रबल रूप में चलता था। आपके पिताश्री पुनड़ शाह व्यापारार्थ विदेशों में गये थे। वहां से वे एक बहुमूल्य माणक लाये थे। उसकी सात अंगुल प्रमाण की भगवान महावीर की मूर्ति बनवा कर घर में देरहासर स्थापित किया था। उस प्रतिमा की सेवा पूजा का लाभ सेठ श्रीचंद के सब कुटुम्ब वाले परम श्रद्धापूर्वक किया करते थे। शाह श्रीचन्द के पूर्वज व्यापारार्थ मरुधर के उपकेशपुर से आये थे । वंशावलियों से पता मिलता है कि श्रीचंद की पांचवी पीढ़ी के पूर्व शाह बरदेव उपकेशपुर से पाटण आये थे, उस समय पाटण नया ही बसा था । पाटण आने के बाद वरदेव का वंश वटवृक्ष की भांति फलता फूलता रहा। शाह श्रीचन्द्र के पांच पुत्रों में सबसे लघु भोजा था । वह भी अपने पिता के समान ही कोट्याधीश एवं प्रबल व्यापारी था । भोजा ने कई बार व्यापारार्थ विदेश की यात्रा की थी। और वहां से कई प्रकार के जवाहरात भी लाये थे । भोजा की धर्मपत्नी का नाम मोहिनी था । भोजा के लाये हुए रत्नादि जवाहिरात में से बढ़िया २ नग चुनकर भगवान की प्रतिमा के कण्ठ में धारण करवाने के लिये परम भक्तिवान, दृढ़ श्रद्धालु श्राविका मोहिनी ने एक सुन्दर हार बनवाया। इस सुन्दर हार के चातुर्य एवं कला को देखकर विविध कला निष्णात मनुष्य भी आश्चर्य विमुग्ध हो जाते । पतिव्रत धर्म परायणा मोहिनी ने हार को सुन्दर ढंग से तैयार कर अपने परमाराध्य पति देव को कहा-पूज्यवर ! कृपया इस हार को प्रभु-प्रतिमा के कण्ठ में पहिनाकर चैत्य वंदन कीजिये, मैं भी अभी ही आती हूँ । शा० भोजा हार की रचना देख बहुत खुश हुआ और अपनी स्त्री की भूरि भूरि प्रशंसा की। बाद में आप आदीश्वर के मंदिर में जाकर द्रव्य पूजा की और प्रभु के कण्ठ में हार पहिनाकर परम भक्ति पूर्वक चैत्यवंदन किया। जब चैत्यवंदन करके भोजा बाहिर आया उसी समय श्राविका मोहिनी मन्दिर में गई पर मूर्ति के कण्ठ में हार नहीं देखा। प्रभु प्रतिमा के कण्ठ में हार को न देख १४३६ Jain Education International नाहटा जाति का श्रीचन्द For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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