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आचार्य कक्कसूरि का जीवन
[ओसवाल सं० १४७४-१५०८
उसके दिल में विचार हुअा कि हार, बहुमूल्य होने से शायद पतिदेव ही अपने साथ ले गये होंगे। इस तरह उसका मानसिक निश्चय होजाने पर भी उसने शान्ति-पूर्वक चैत्य वन्दन किया और अपने मकान पर आकर मानसिक भ्रम के कारण अपने पतिदेव को मधुर उपालम्भ दिया। उसने कहा-देव ! आप भाग्य शाली हैं कि विदेश में जाकर इस तरह के अमूल्य रत्न, जवाहरात लाये और उसका हार प्रभु के कोमल कण्ठ में स्थापन कर भक्ति का खूब ही लाभ लूटा पर मैं कैसी अभागिनी हूँ मुझे हार सहित प्रभु प्रतिमा की भक्ति का लाभ ही नहीं गिला । पतिदेव ! इतनी तो मेरे ऊपर भी कृपा रखनी थी। मैंने कोई ऐसा अक्षम्य अपराध भी नहीं किया कि जिसके आधार पर मैं इतना अधिकार प्राप्त करने से वंचित रहूँ। प्रभो ! हार भी मैंने ही तैय्यार किया था तो क्या मुझे इतना अधिकार भी नहीं कि मैं चैत्य वन्दन करूं वहां तक प्रभु के कण्ठ में हार देख सकू।
अपनी धर्मपत्नी के मधुर किन्तु उपालम्भ सहित वचनों को सुनकर भोजा ने अफसोस के साथ कहामैंने खास आपके लिये ही हार भगवान् के कण्ठ में रख छोड़ा था फिर यह उपालम्भ कैसे ?
श्राविका मोहिनी-तो क्या मैं असत्य कहती हूँ, प्रभो ।
१ वरदेव (उपकेशपुर से पाटण गये)
जयपाल
विजयपाल
गुणपाल
जिनपाल राजपाल देपाल
हरपाल
सागण खेतो जेतो लालो
।।। रामो | फार | पद्मा दुर्गो धनो मनो सामो
नेमो
खेमो
हाप्पो हर्षण जसो
कर्मो धर्मो पन्नो सूजो
मालो डाहो डाबर जाला उदो कालो
पुनड़ रावल पातो लाखण सांलग
(धार्मिक कार्यों में मन्दिर बनाना संघ निकालादि)
सूजो श्रीचन्द मलुक मोहन जघडु नस्यो देसाल
।
दानो कानो मातो राजो भोजो
(नोट-शाह भोजा के सिवाय भी वंशावलियों में सबकी परम्परा को
बहुत ही विस्तार पूर्वक बतलाया है)
सारंग अजड़ भीम भोपाल
Anmomorrown
maharani
प्रभु के कण्ठ में दिव्याहार की चर्चा
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