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________________ प्राचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १३५२-१४११ वे पाटण में चले गये । वहां उनको गरिया २ कहने लगे अतः इनकी सन्तान गरिया कहलाने लगी। __खजाची-वि० सं० १२४२ में गरिया गौत्रीय रूपणसी ने धारा नगरी के राजा के खजाने का काम किया जिससे रूपणसी की सन्तान खजाश्ची कहलाई । रूपणसी के पुत्र उदयभाण ने धारा में भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया। इसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १२८२ में माघ शु०५ को सूरिजी ने करवाई। मूल नक्षत्र जाति और उनकी शाखाएं--वंशावलिये जो मेरे पास हैं उसमें इस जाति के कुल धर्म कार्य निम्नलिखित मिले हैं ८७-जैन मन्दिर, धर्मशालाएं और जीर्णोद्धार । २३-बार यात्रार्थ तीर्थों के संघ निकाले । ४२-बार श्रीसंध को अपने घर बुलाकर संव पूजा की। ४-बार सूत्र महोत्सव कर ज्ञानाचना की। ३-आचार्यों के पद महोत्सव किये। १-मुग्धपुर में बड़ी वापिका बनवाई । १३-इस जाति के वीर योद्धा युद्ध में काम आये और ७ स्त्रियां सती हुई। २-दुष्काल में अन्न और घास देने का भी उल्लेख है। इस प्रकार नक्षत्र जाति के वीरों ने अनेक प्रकार से देश, समाज एवं धर्म की बड़ी २ सेवाएं की हैं। इस समय नक्षत्र जाति के ओसवालों के घर कम रहे हैं। कई लोगों को तो अपनी मूल जाति का भी पता नहीं-यह भी समय की बलिहारि ही कही जा सकती है। कागजाति-आचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज एक समय लोद्रवा पट्टन की ओर पधार रहे थे। मार्ग में एक काग नामक नदी आई । नदी के तट पर कागर्षि नाम का एक सन्यासी तापस चौरासी धूनिये लगाकर तपस्या कर रहा था। उक्त तापस के तपस्तेज से प्रभावित हो रोली ग्राम के जागीरदार भाटी पृथ्वीघर तापस के लिये भोजन लेकर आये हए खड़े थे। जब प्राचार्यश्री काग नदी के तट पर पहुंचे तो तापस आसन से उठकर सूरिजी का अच्छा सत्कार-सम्मान किया । और पास में पड़े हुए एक श्रासन को लेकर तापल ने कहा-महात्मन् ! बिराजिये । पर सूरिजी भूमिका प्रमार्जन कर अपने पास की कम्बली बिछाकर आचार्यश्री वहीं पर विराज गये। पास ही में आपका शिष्य समुदाय भी यथा स्थान स्थित हो गया। तब तापस ने पूछा-क्या आप हमारे श्रासन पर नहीं बैठ सकते हैं ? सूरिजी-हम तो आपके अतिथि हैं किन्तु हमारा आचार भूमि को प्रमार्जन करके ही बैठने का है। देखिये यह रजोहरण भी इसी काम के लिये है। इससे प्रमार्जन करते हुए किसी भी जीव का विधात नहीं होता है। तापस-तो क्या हमारे आसन के नीचे जीव हैं ? सूरिजी-जीव हैं या नहीं, इसके लिये तो हम कुछ भी नहीं कह सकते पर हमारा व्यवहार भूमि प्रमार्जन करने का है। बस, तापस ने अपना आसन उठाया तो उसके नीचे बहुत सी चीटियाँ पाई गई । अब तो तापस पूर्ण लजित हो गया। सूरिजी ने कहा-तपस्वीजी! एक आसन में ही क्या पर इस ज्वाजल्यमान अग्नि में भी न मालूम कितने जीवों का अनायास ही संहार होता होगा? क्या इस विषय में भी आपने कभी गम्भीरता पूर्वक विचार किया है ? यदि आपको आत्म कल्याण करना ही इष्ट है तो इन बाह्य निरर्थक कर्म बन्धक क्रिया काण्डों से क्या लाभ है ? श्रात्मकल्याण के लिये तो आभ्यन्तरिक आत्मशुद्धि होना आवश्यक है। सुरीश्वरजी और तापस का वार्तालाप १३७७ Jain Education Intem१७३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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