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________________ वि० सं० ६५२-१०११ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तापस भद्रिक परिणामी और सरल स्वभावी था अतः उसने कहा महात्मन् ! हमारे गुरुओं ने जो हमें मार्ग बतलाया है उसी का अनुसरण करते हुए हम परम्परा से चलते आरहे हैं। कृपाकर अब आप ही श्रान्तरिक शुद्धि का विस्तृत स्वरूप समझाने का कष्ट करें। श्राचार्यश्री ने भी तापस के आत्म कल्याणार्थ आत्मस्वरूप, आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए कर्मों का सम्बन्ध स्वरूप कर्म आदान व मिध्यात्व के कारण और कर्मों से मुक्त होने के लिये सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र और तप का विस्तृत स्वरूप कह सुनाया । अन्त में श्राचार्यश्री ने तपस्वीजी को सम्बोधित करते हुए कहा-तपस्वी जी ! गृहस्थ लोग अपने खजाने के ताला लगाया करते हैं । उसको खोलने वाली चाबी छोटी सी होती है पर बिना चात्री के ताले को कितना ही पीटो पर वह खुल नहीं सकता । घृत, दधि में प्रत्यक्ष स्थित होता है उसको कितनी ही बार इधर उधर कर लीजिये पर बिना यंत्र ( बिलोने) के घृत नहीं निकलता है । इसी प्रकार आत्म स्वरूप को भी समझ लीजिये । आत्मा स्वयं सच्चिदानन्द परमात्मा स्वरूप है पर वह बिना सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, एवं तप के विशुद्ध नहीं होता । जैसे ताला चाबियों के द्वारा सहज ही में खोला जा सकता है । घृत - यन्त्र द्वारा बहुत ही सुगमता पूर्वक निकाला जा सकता है वैसे ही उक्त साधनों के द्वारा आत्ममल को दूर कर परम निर्मल सच्चिदानन्दमय ईश्वरीय स्वरूप आत्मा बनाया जा सकता है । तापस - तो हमें भी कृपा कर आत्मा से परमात्मा बनने के विशुद्ध स्वरूप को बतलाइये । सूरिजी - आप इस हिंसा मय बाह्य क्रियाकाण्ड को त्याग कर अहिंसा भगवती की पवित्र दीक्षा से दीक्षित होजाइये | आपको अपने आप आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय व सन्मार्ग का चारु मार्ग ज्ञात हो जायगा । सूरिजी और तापस की पारस्परिक चर्चा को पास ही में बैठे हुए रोती ग्राम के जागीरदार पृथ्वीधर बहुत ही ध्यान पूर्वक सुन रहे थे। उनके साथ श्राये हुए अन्य क्षत्रियों की आकांक्षा वृत्ति भी धर्म के विशिष्ट स्वरूप को जानने के लिये जागृत हो उठी। वे सब के सब उत्कण्ठित हो देखने लगे कि अब तापसजी क्या करते हैं ? तापसने थोड़े समय मौन रह कर गम्भीरता पूर्वक विचार किया, पश्चात् निवृति को भङ्ग करते हुए आचार्यश्री के सामने मस्तक झुका कर कहने लगा-प्रभो ! मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करने के लिये तैय्यार हूँ । बतलाइये मैं क्या करूं ? सूरिजी ने भी उनको जैन दीक्षा का स्वरूप समझा कर अपना शिष्य बना लिया । तपस्वीजी का नाम गुणानुरूप तपोमूर्ति रख दिया । पृथ्वीधर आदि उपस्थित क्षत्रिय समुदाय को वासक्षेप पूर्वक शुद्ध कर उपकेश वंश में सम्मिलित कर दिया । कागर्षि की स्मृति के लिये सूरिजी ने कहाआज से आप उपकेश वंश में काग जाति के नाम से पहिचाने जायेंगे । पृथ्वीधर प्रभृति क्षत्रिय वर्ग ने सूरिजी का कहना स्वीकार कर लिया। इसके साथ में ही प्रार्थना की कि गुरुदेव ! आप हमारे ग्राम में पधार कर हमें श्री की सेवा का लाभ दें व मार्ग स्खलित बन्धुओं को जैनधर्म की दीक्षा देकर हमारे समान उनका भी कल्याण करे | सूरिजी ने लाभ का कारण सोचकर अपने शिष्य समुदाय के साथ रोली ग्राम में पदार्पण किया । वहां की जनता को सदुपदेश दे जैनधर्म में उन्हें दीक्षित किया । इस घटना का समय पट्टावली निर्माताओं ने वि० सं० १०११ के वैशाख सुद पूर्णिमा का बताया है। इस जाति में भी बहुत से दानी, मानी, नामी नर रत्न पैदा हुए जिन्होंने अपने कार्यों से संसार में बहुत ही नाम कमाया। इस जाति का मूल पुरुष पृथ्वीधर - भाटी राजपूत था। इनकी वंश परम्परा निम्न है - - १३७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only काग जाति की उत्पति www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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