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________________ वि० सं० ६५२-१०११] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सदाशंकर मदन गोकुल रामो श्रीपति वल्लभ नारायण बलदेव श्रीकरण मोहन ( इन सभी के परिवार, स्थान तथा धार्मिक कार्यों का विस्तार से उल्लेख है) मुरारी मुकुन्द आम्र पालक भानो (पार्श्व० नन्दिर) (शत्रुञ्जय का संघ ) इसी नक्षत्र जाति से वि० सं० ११२३ में घीया शाखा निकली। घीया शाखा के लिये लिखा है कि व्यापारार्थ गये हुए नक्षत्र जाति वाले कई लोगों ने लाट प्रदेश खम्भात में अपना निवास स्थान बना लिया था। उक्त प्रान्त में उन्हें व्यापारिक क्षेत्र में बहुत ही लाभ पहुँचा। उन्होंने व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया । कालान्तर में नक्षत्र जात्युद्भूत शाह दलपत ने एक विशाल मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया। एक दिन वह भोजन करने के निमित्त थाली पर बैठा ही था कि घृत में एक मक्षिका पड़कर मर गई। दलपत ने घृत में मृत मक्षिका को अपने पैर पर रखदी । उसी समय किसी विशेष कार्य के लिये एक कारीगर भी वहां आगया। उसने भी सेठजी की उक्त करतूत देखली अतः उसके हृदय में शंका होने लगी कि ऐसा कृपण व्यक्ति भी कहीं मन्दिर बनवा सकता है ? सेठजी की उदारता की परीक्षा के लिये कारीगर ने कहा-सेठ साहब ! मन्दिीर की नींव खुद गई है। प्रातःकाल ही १०० ऊंट घृत की जरूरत है अतः इसका शीघ्र ही प्रबन्ध होना चाहिये । सेठ ने कहा-इसकी चिन्ता मत करो, कल आ जायगा । दूसरे दिन प्रातःकाल ही १०० ऊंट घृत के यथा समय आ गये । कारीगरों ने सेठजी के सामने ही घृत को नींव में डालना प्रारम्भ किया तब सेठजी ने कहा-कारीगरों ! मन्दिरजी का कार्य है। काम कच्चा नहीं रह जाय, घृत की और आवश्यकता हो तो और मंगवा लेना पर मन्दिर का कार्य सुचारु रूप से मजबूत करना । सेठजी की इस उदारता पर गत कल चक्षुदृष्ट बात की स्मृति से कारीगर को हंसी आ गई । सेठजी ने हंसी का कारण पूछा तो कारीगर ने कहा-सेठजी! कल घृत में एक मक्खी गिर गई जिसको तो आपने पैरों पर रगड़ी और यहां ऊंट के ऊंट घृत के भरे हुए डालने को तैयार होगये अतः मुझे कल की बात याद आ कर हंसी आगई । सेठजी ने कहा-कारीगरों ! हम महाजन हैं। बेकार तो एक रत्ती भी नहीं जाने देते और आवश्यकता पड़ने पर करोड़ों रुपयों की भी परवाह नहीं करते । भला-तुम ही सोचो, यदि मक्खी को यों ही डाल देता तो कितनी चींटियें आ जाती ? पैरों पर रख देने से तो चर्म नरम होगया और कीड़ियों की हिंसा भी बच गई । कारीगर ने कहा-सेठजी ! धन्य है आपकी महाजन बुद्धि को और धन्य है आपकी दया के साथ उदारता को !!! शा० दलपत ने ५२ देहरीवाला विशाल मन्दिर बनवाया व आचार्यश्री के कर कमलों से बड़े ही समारोह पूर्वक मन्दिरजी की प्रतिष्ठा करवाई। जिसमें आगत साधर्मियों को पांच पांच मुहरें लड्डू में गुप्त डाल कर पहरावणी दी । दलपत की सन्तान ही भविष्य में 'घीया' शब्द से सम्बोधित की जाने लगी। ___संघवी-नक्षत्र गौत्रीय शा माला ने वि० सं० ११५२ में नागपुर से विराट् संघ निकाला अतः माला की सन्तान संघवी कहलाई। गरिया-नक्षत्र जाति के शा० सबला की गरिया ग्राम के जागीरदार के साथ अनबन होने के कारण १३७६ शाह दलपत के ५२ मिनालय का मन्दिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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