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________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १३५२-१४११ यशोभद्र, भद्रबाहु, मुकुन्द, रक्षित, सिद्धसेन और हरिभद्रादि अनेक वेद निष्णात, अष्टादशपुराण स्मृतिपारङ्गत विद्वान ब्राह्मणों ने अपने मूलधर्म को स्वीकार कर उसकी आराधना की। आपको भी स्वार्थ के लिये नहीं किन्तु आत्म कल्याण के लिये ऐसा करना ही चाहिये । हां, यदि जैनधर्म के सिद्धान्तों के विषय में आपको किसी भी तरह की शंका हो तो आप लोग मुझे पूछकर निश्शंक तया उसका निर्णय कर सकते हैं । इत्यादि ब्राह्मणों को आचार्यश्री का उक्त कथन सर्वथा सत्य एवं युक्तियुक्त ज्ञात हुआ। उन्होंने आचार्यश्री के वचनों को हर्ष पूर्वक स्वीकार कर लिया। तब सूरिजी ने कहा-सदाशंकर को रात्रि पर्यन्त हमारे मकान में रहने दो और आप सब लोग अपना अवसर देखलें ( पधार जावें)। आचार्यश्री के वचनानुसार सब लोग वहां से चले गये । रात्रि में आचार्यश्री ने न मालूम क्या किया कि प्रातःकाल होते ही सदाशंकर सर्वथा निर्दोष होगया । ब्राह्मणों ने भी अपनी प्रतिज्ञानुसार जैनधर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस दिन से वे नक्षत्र नाम से कहलाने लगे। इतना ही क्यों पर नक्षत्र नाम तो उनकी सन्तान के साथ में भी इस प्रकार चिपक गया कि इनकी सन्तान परम्परा ही नक्षत्र के नाम से पहिचानी जाने लगी । क्रमशः यह भी एक जाति के रूप में परिणित होगई। इस घटना का समय पट्टावली निर्माताओं ने वि० सं० ६६४ मिगसर सुद ११ का लिखा है। किसी व्यक्ति, जाति एवं धर्म का अभ्युदय होता है तब चारों ओर से अनाशय उन्हें लाभ ही लाभ होता है । यही बात पुनीत जैनधर्म के लिये भो समझ लीजिये वह समय जैनधर्म के अभ्युदय-उन्नति का था। उस समय जैनियों की सुसंगठित शक्ति ने वादियों के आक्रमणों को सफल नहीं होने दिया। समाज पर जैनाचार्यों का अच्छा प्रभाव था। उनके हुक्म को समाज देव बचन के भांति शिरोधार्य करता था। हजारों श्रमण श्रमणियां एक आचार्य की आज्ञा के अनुयायी थे। जैन श्रमण जहां कहीं जाते-नये २ जैन बनाकर ओसवाल संघ में शामिल करते । जैन महाजन संघ की भी इतनी उदारता थी कि-राजपूत हो, वैश्य हो, या ब्राह्मण हो, जिस किसी ने जिस दिन से जैनधर्म का वासक्षेप ले लिया उसी दिन से वह जैन समझा जाने लगा। उनके साथ रोटी बेटी ब्यवहार करने में भी किसी भी तरह का संकोच नहीं किया जाता जिससे उनके हृदय में नये पुरानों के बीच मतभेद के भाव या सकीर्णता के विचार ही प्रादुर्भूत नहीं होते । आर्थिक सहायता प्रदान कर स्वधर्मी बन्धु के नाते उन्हें अपने समान बना लेने में तो उनकी विशेष उदारता थी। व्यापार क्षेत्र तो श्रोसवालों का पहिले से ही विस्तृत था अतः वे जब कभी चाहते हजारों नवीन ओसवाल भाइयों को व्यापार क्षेत्र में भगा देते। नवीन जैन बने हए व्यक्तियों के साथ रोटी बेटी व्यवहार हो जाय और उदार वृत्ति पर्वक उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जाय फिर तो उनके उत्साह में कमी ही किस बात की रह सकती ? वे लोग भी प्रसन्न चित्त हो हर एक सुविधा को पा धर्माराधन में संलग्न हो जाते। उस समय महाजन संघ का राजा प्रजाओं में भी बड़ा आदर था प्रायः राजतंत्र, वोहरगत एवं व्यापार उनके ही हाथ में था। ये लोग अत्यन्त उदार वृत्ति वाले थे। काल, दुकाल में करोड़ों का द्रव्य व्यय कर देशवासी बन्धुओं को सहायता करते थे यही कारण था कि जैन बनने वाले नवीन व्यक्तियों को हर एक तरह से सुविधाएं प्राप्त थीं। वंशावलियों में नक्षत्र जाति की वंशावली को बहुत ही विस्तार पूर्वक लिखी है। इस जाति के उदार नर रत्नों ने बहुत २ अद्भुत कार्य किये हैं। इन्हीं शुभ कार्यों के कारण इस जाति के महापुरुषों की धवल कीर्ति आज भी वंशावलियों में अङ्कित है नक्षत्र जाति की उत्पत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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