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वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
निश्चय नहीं छोड़ा तो माता पिताओं को दीक्षा के लिये श्राज्ञा देनी ही पड़ी । श्राखिर कज्जल ने अपने ७ साथियों के साथ सूरीश्वर जी म. सा. के पास दीक्षा ग्रहण कर ही ली। दीक्षानंतर श्रापका नाम मूर्ति विशाल रख दिया । मुर्ति मूर्तिविशाल सिंघप्रांत के सुपुत्र थे अतः उन्होंने चारित्रवृत्ति को जिन श्रादर्शभावनाओं से प्रेरित हो अङ्गीकार की उनका निर्वाह करने के लिये वे स्थाविरों को विनय, भक्ति वैयावृत्य व उपासना करते हुए ज्ञान सम्पादन करने में संलग्न हो गये । वह गुरुकुल वास का जमाना से पवित्र एवं आदर्श था कि उस समय श्राज के जैसे स्वेच्छाचारियों व मुनिवृत्तिविघातक मुनियों का अस्तित्व ही नहीं रहने पाता था । वे गुरु पास में रद्द कर ज्ञान दर्शन चारित्र की वृद्धि करने में संसार त्याग की महत्ता समझते थे । इसमें मुख्य कारण तो उनके विनय व वैराग्य की दृढ़ता थी । श्राज के जैसे ऐरे गेरे को वे मुण्डित नहीं करते थे क्योंकि शासन की लघुता में तो वे अपनी लघुता समझते थे । उनके हृदय में इस बात का गौरव था कि हम
संसार का त्याग आत्मकल्याण के लिये किया है फिर आत्मगुण विघातक वृत्तियों का पोषण एवं रक्षण कर आत्मवश्वना का बड़ा पाप सिर पर कैसे लादें ? इन्हीं सब कारणों से दीक्षा के पश्चात् ज्ञानाराधना करने को वे अपने जीवन का एक मुख्य अंग ही बना लेते थे । ज्ञावरणीय कर्म के क्षयोपशामानुसार वे गुरुदेव की सेवा करते हुए अतृप्त की भांति ज्ञानाध्ययन किया ही करते थे । यद्यपि उस समय चैत्यवासियों के आचार, विचार एवं व्यवहार में यत् किञ्चित् शिथिलता का प्रवेश हो गया था तथापि, गुरु की श्राज्ञा का पालन करना और ज्ञान पढ़ना तो उनमें भी मुख्य समझा गया था ।
मूर्तिविशाल ने श्राचार्यश्री की सेवा में १९ वर्ष पर्यंत रह कर अनवरत परिश्रम पूर्वक वर्तमान जैन साहित्य का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया । शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही साथ उस समय के लिए आवश्यक न्याय, व्याकरण, छंद तर्कादि शास्त्रों का भी खूब सूक्ष्मता पूर्वक मनन किया था। इन विद्याओं के सिवाय गुरु परम्परा से विद्या, आम्नाय, सूरि मंत्र की साधना वगैरह२ सूरिपद के योग्य सर्व योग्यताएं हांसिल कर ली । यही कारण है कि आचार्य श्रीसिद्धसूरिजी अपने अन्तिम समय में मेदनीपुर नगर में आदित्यनाग गौत्र की गोले चाशाखा के धर्म वीर शाह श्रादू के महामहोत्सव जिसमें पूजाप्रभावना स्वामिवात्सल्य और साधर्मी नर नारियों को पेहरावरणी आदि में सात लक्ष द्रव्य शुभ कार्यों में एवं याचकों को पुष्कल दान देने में व्यय किया और सूरिजी महाराजने मुनिमूर्त्तिविशाल को बड़े ही समारोह के साथ सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम परम्परानुसार कक्कसूरि रख दिया ।
श्राचार्य श्रीकक्कसूरिजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली आचार्य थे । श्रापका तपतेज एवं ब्रह्मचर्य का प्रचण्ड प्रताप मध्यान्ह के सूर्य के भांति सर्वत्र प्रकाशमान था । एक और तो जैनधर्म से कट्टरता रखने वाले बादियों के संगठित हमले रह २ कर जैनधर्म पर वस्त्र प्रहार कर रहे थे । और दूसरी ओर चैत्यवासियों के आचार विचार एवं नियमों की कुछ शिथिलता समाज की जड़ को खोखली कर रही थी श्रतः श्रापश्री को शासन का गौरव बढ़ाने के लिये दिग्गज विद्वानों का सामने शास्त्रार्थ करना पड़ता और जैनश्रमणों के जीवन को पवित्र एवं निर्दोष रखने के लिये पुनः पुनः उन्हें प्रोत्साहित करना पड़ता । ऐसे विकट समय में जैनशासन की आपश्री ने किस तरह रक्षा एवं वृद्धि की यह सचमुच आश्चर्योत्पादक ही है।
यह तो हम पहिले ही लिख ये हैं कि कालदोष से कई चैत्यवासियों के आचार विचार एवं व्यबहार में कुछ शिथिलता अवश्य आगई थी पर उनके गेम २ में जैनधर्म के प्रतिदृढ़ अनुराग भरा हुआ
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चैत्यवासिया का आचार
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