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________________ आचार्य ककरि का जीवन ! [ ओसवाल सं० १९०८-१२३० थावे शासन की उन्नति में ही अपनी उन्नति एवं गौरव समझते थे । यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से वे चारित्र को निर्दोष नहीं पाल सके तथापि जैनशासन की हर तरह से उन्नति एवं प्रभावना करने में उन्होंने कुछ भी पार नहीं रक्खी ! उस समय जैनधर्म की धवल यशः पताका यत्र तत्र सर्वत्र फहरा रही मसूर और शीलगुणसूरि जैसे जैनधर्म के स्तम्भ उस समय विद्यमान थे। इनका विशद जीवन चरित्र वीर परम्परा के प्रकरण में लिखा जायगा । प्राचार्यश्री सूरिने सर्व प्रथम घर की बिगड़ी हालत को सुधारने का प्रयत्न किया कारण, उन्होंने सोचा कि अमणवर्ग की शिथिलता दूर होकर उनमें उत्साह एवं धर्मप्रेम की नवीन स्फूर्ति का सञ्चार होजाय तो जैनधर्म का विस्तृत प्रचार उनके जरिए स्थानों २ पर कराया जा सकता है । बस, उक्त भावनाओं से प्रेरित हो श्रापश्री ने स्थान २ पर श्रमण सभाएं करवाई उनमें से एक सभा चंद्रावती में भर वाई जिसमें अगत भगण मण्डली का तिरस्कार करने के बजाय उनके कर्तव्य की स्मृति करवाते हुए प्रत्य न्त मधुर उपालम्भ देते हुए समझाया कि - श्रमण बन्धुओं । भगवान महावीर ने अपने शासन की डोर आप लोगों के हाथ में दी है। यदि इसका सञ्चालन एवं रक्षण अपना कर्तव्य समझते अपन नकरें तो सचमुच इग लोग अपनी श्रवृत्ति के पवित्र जीवन से कोसों दूर हैं। शासन के प्रति विश्वासघात करके निकाचित कमों के बंध कर्ता है। भला सोचने की बात है कि -- वीरभगवान् के बाद भी दीर्घदर्शी पूर्वाचार्यों ने हमारी सहूलियत के लिये नगे जैन बनाकर महाजनसंघ रूप एक सुदृढ़ संस्था की स्थापना का हमारे ऊपर कितना उपकार किया है ? उन पूर्वाचार्यों ने जिन कष्टों एवं परिषहों को सहन करके सुदूर प्रान्तों में धर्म प्रचार किया उनमें से हमको जो किन्चित भी धर्म प्रचार में संकट सहन नहीं करने पड़ते कारण उन्होंने कण्टकाकीर्ण मार्ग को सुसंस्कृत एवं परिष्कृत कर दिया फिर भी यदि हम लोग शास्त्रीय नियमों की पर वाह किये बिना कर्तव्य पराङ्मुख बन जानें तो हमारे जैसे कृतघ्न एवं शासन द्रोही और कौन होसकते हैं ? हमारे उन आदर्श पूर्वाचार्यों के समय तो द्वादशवर्षीय जनसंहारक महा भीषण दुष्काल पड़े फिर भी उन्होंने ऐसे विकट समय में जैन संस्कृति की अपनी सम्पूर्ण शक्ति सत्ता से रक्षा की तो क्या उनके द्वारा बनाये हुए करोड़ों की तादाद आज अपने भरोसे पर है तो अपने कर्तव्य का आप लोग अपने ही आप विचार करलें । जैसे एक पिता अपने पुत्रों के विश्वास पर करोड़ों की सम्पत्ति को छोड़ जाता है तो पुत्रों का कर्तव्य जनकोपार्जित लक्ष्मी की न्याय पूर्वक वृद्धि करने का ही होजाता है । यदि बढ़ाने जितनी योग्याता उनमें नहीं है तो कम से कम रक्षण करना तो उसका परम कर्तव्य ही होजाता है । अस्तु, उक्त कर्तव्य की स्मृति पूर्वक जब तक वह इस द्रव्य को उतने ही परिमाण में रहने देता है तब तक तो संसार में उसकी कुछ मान मदा एवं प्रतिष्ठा रहती है परन्तु पुत्रों के प्रमाद, बे परवाही एवं विलासी जीवन का लाभ उठाकर कोई दूसरे प्रतिपक्षी उ वन को हड़प कर लेवे और समर्थ पुत्र अपनी आंखों से उसको देखता रहे तो इसमें न तो पुत्र की शोभा ही रहती है और न संसार में मान मर्य्यादा ही बढ़ती है । न वह अपना सांसारिक जीवन सुखमय व्यतीत कर सकता है और न किसी योग्य कार्य के काविल ही रहता है । इतना ही क्या पर प्रतिपक्षियों की प्रबलता के कारण उसका अस्तित्व रहना भी कालान्तर में दुष्कर होजाता है। यही हाल आज अपने शासन का होरहा है। यदि आप लोग शासन की रक्षा के लिये कमर कसकर तैय्यार न होवेंगे तो निश्चित् ही एक समय ऐसा आवेगा कि जैनधर्म का नाम संसार में पुस्तकों की शोभा रूप ही हो जायगा । चन्द्रावती में श्रमण सभा - Jain Education International For Private & Personal Use Only ११३३ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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