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________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्रिय आत्मबन्धुओं ! जिन सुविहित शिरोमणियों ने चैत्यवास प्रारम्भ किया था— उन्होंने आधाकर्भी मकान के पाप के भय से ही किया था । उनको तो स्पप्न मात्र में भी यह कल्पना नहीं थी कि आज के हमारे चैत्यवास का परिणाम भविष्य में इतना भयङ्कर होगा । उन्होंने तो पातकभय से, व जिनालय की रक्षा निमित्त ही चैत्यवास को स्वीकृत किया था । उनके हृदय में यह कल्पना तक नहीं थी कि हमारे पीछे हमारी सन्तान इस चैत्यवास के कारण शिथिल होकर मठवासियों की तरह पहिचानी जायगी यदि उन्हें भयङ्करता के विषमय विषम परिणाम की कल्पना होती तो उस समय के लिये परमोपयोगी चैत्यवास का प्रारम्भ ही नहीं करते । बन्धुओं ! जिस समय हम लोग संसारावस्था को त्याग कर चरित्र वृत्ति लेते हैं उस समय हमारे हृदय में शासन के प्रति एवं चारित्र के प्रति कितनी उत्कृष्ट भावनाएं रहती हैं ? यदि भावनाओं की उच्चता एवं विचारों की आदर्शता चरम समय पर्यन्त तद्रूप न रहे तो निश्चित ही साधु वृत्तिस्वादुवृत्ति के नाम से निर्दिष्ट हो जायगी । यदि साधुवृत्ति के पवित्र जीवन में भी गृहस्थ जीवन के समान aar गृह की निर्माण भावना रहती हो, पौद्गलिक मन मोहक पदार्थों में मोह रहता हो तो हमारा संसार छोड़ना और न छोड़ना दोनों ही समान है । मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इस प्रकार के शिथिल एवं श्राचार विहीन साधुओं से तो गृहस्थों का गार्हस्थ्य जीवन ही सुखमय है जो अपने थोड़े बहुत नियमों को यावज्जीवन पर्यन्त सुख से निभाते हैं । बन्धुओं इस प्रकार की शास्त्रमर्यादा का अतिक्रमण करने से अपने दोनों ही भवबिगड़ जायेंगे । कृतघ्नता एवं विश्वासघात के वस्त्र पाप से भी अपने आप को सुरक्षित नहीं रख सकेंगे । कारण, इस समय जो अपने को मुनिवृत्ति निर्वाहक साधनोपकरण उपलब्ध होते हैं । वे सब भगवान महावीर के नाम पर ही । अतः इसके बदले में हम शासन की सेवा रक्षा एवं अपने आचार विचार में पवित्रता न रक्खें तो निश्चित ही हम शासन द्रोही कलंकित हैं। जनता का आपके ऊपर पूर्ण विश्वास है । वे समझते हैं कि हमारे गुरुत्रों का जीवन अत्यन्त निर्मल एवं त्यागमय है अतः उनकी हर तरह की सेवा का लाभ लेना हमार कर्तव्य है अस्तु | अपनी जीवनचर्या में इस प्रकार की शिथिलता रख कर तो उनके साथ भी विश्वासघात ही करना है कारण वे अपने को त्यागी समझ कर अपने साथ शासन मर्यादा बराबर निभाते आ रहे हैं तो अपना कर्तव्य भी उनके मंतव्यानुसार आचार विचार को पवित्र रखना होजाता है । इसी में अपनी जीवन की उन्नति श्रम कल्याण की पराकाष्ठा, एवं मोक्षसाधन की उत्तम क्रिया अन्तर्हित है। शासन की प्रभावना एवं सेवा भी इसमें शामिल है । इत्यादि । इस प्रकार आचार्यश्री ने परम निर्भीकता पूर्वक सचोट, दुःखी हृदय का दर्द श्रमण सभा में स्पष्टवक्ता के समान स्पष्ट प्रगट कर दिया । अन्त में आपने फरमाया की मैंने मेरे दग्ध हृदय से कुछ कटु ए अनुचित शब्द भी आप लोगों के लिये कहे हैं पर क्या किया जाय ? शासन का पतन देखा नहीं जाता है। अपने लोगों की शिथिलता समाज की जड़ को खोखली बनाकर समाज को मृत प्राय बना रही है अतः अपने जीवन की पवित्रता शासनोत्थान के लिये सर्व प्रथम श्रावश्यक है । मुझे उम्मेद है कि वीर की सन्तान वीर ही हुआ करती है अतः आप लोग भी भगवान् महावीर की सन्तान होने का दावा करते हैं तो शीघ्र ही वीर पताका को पुनः चतुर्दिक में लहरा दीजिये । सिंह भले ही थोड़ी देर के लिये प्रमादावस्था में पड़ा रहे पर सिंह शृंगोल नहीं हो सकता सिंहोचित स्वाभाविक प्रतिमा तो उसके मुख पर सदा झलकता ही रहती है | देखिये-— शास्त्रों में एक उदाहरण बतलाया है । ११३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्यश्री का श्रमणों कों उपदेश www.jainenbrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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