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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१२३७
दूसरों को तारे ऐसा है। जब तुम को बिना आज्ञा दीक्षा देकर हम हमारे व्रत का खण्डन करें तो इससे तुम तो तिरे पर हम तो संसार के पात्र ही बने । इससे तो हमारा शिष्य मोह और मारा कपट दोष जो मिथ्यात्व के पाये हैं -बढ़ते रहेंगे। परिणाम स्वरूप जिस आशा एवं विश्वास पर पौद्गलिक पदार्थों का त्याग कर चारित्र वृत्ति की शरण ली है वह तो हमारे लिये निरर्थक ही सिद्ध होगी। संसारावस्था को छाड़ कर के भी संसारिक प्रवृत्ति के अनुरूप ही हमारा चारित्र रहेगा । कज्जल ! जरा गम्भीरता पूर्वक जैन दर्शन के सिद्धान्तों का मनन करो। यदि कदाचित तुम्हारे अत्याग्रह से माता पिता की बिना आज्ञा हमने तुमको दीक्षा दे भी दी तो आगे तुम भी इसी तरह की प्रवृत्ति का प्रदुर्भाव कर देंगे जिससे संसार से तैरने का रास्ता तो एक दम बंद हो जायगा और मोह, माया, कपट, मिथ्यात्व एवं तृष्णा का अधिक्य ही वृद्धिगत होता रहेगा अतः अपने किम्वित् स्वार्थ के लिये धर्म पर कुठाराघात करना निरी अज्ञानता है । कज्जल ! तुम्हारा यह भ्रममात्र है कि तुम्हारे कहने पर भी माता पिता तुम्हें आज्ञा न दें। भला-जाते और मरते हुए को दुनियां में कौन रोक सकता है ? पर इसके लिये चाहिये दिल की दृढ़ भावना, सच्चा वैराग्य, श्रात्म विश्वास विचारों की दृढ़ता एवं मन का परिपक्वपना । कज्जल ! देख; हम और हमारे इतने साधु हैं। क्या हमारे और इनके माता पिता नहीं थे ? या हम से किसी के माता पिता ने उसे निर्मोही की तरह श्राज्ञा दे दिया ? यदि नहीं तो माता पिताओं को समझना और उन्हें निवृत्ति पथ के पथिक बनाना तुम जैसे मेधावियों का काम है । आज हमारे पास वर्तमान इन साधुओं के माता पिता जब अपने पुत्र को ज्ञान, ध्यान, चारित्र आदि में उत्कृष्ट वृतिकों देखते हैं तो उनके हर्ष का पारावार नहीं रहता है। वे अपना अहोभाग्य समझ कर उन साधुओं के चरणों में मुहुर्मुहु वंदन करते हैं अतः यदि तुम्हारी दीक्षा लेने की सच्ची भावना है वो तुम्हें माता पिताओं की सर्व प्रथम आज्ञा प्राप्त करनी ही होगी। तब ही हम दीक्षा देंगे ?
___ कजल-पूज्यपाद गुरुदेव ! श्रापको कोटिशः नमस्कार हो । आप जैसे निस्पृही एवं विरक्त महास्मा संसार में विरलेही होंगे। धन्य है इस परमपवित्र जैनधर्म को कि जिसके संचाल : तीर्थङ्कर देवों ने धर्म के ऐसे दृढ़ एवं आदरणीय नियम बनाये हैं । वास्तव में इन्हीं नियमों की कठोरता के कारण ही जैनधर्म का अन्यधर्मों की अपेक्षा दुनियां में विशेष स्थान है । जैनश्रमणों का चारित्र, आचार व्यवहार अन्य साधुनामधारियों की अपेक्षा सहस्रगुना उत्कृष्ट है इससे नतो जैनधर्म की निंदा होती है और न जैनधर्म कि धुरा को धारण करने वाले श्रमणों पर अविश्वास ही । न अनीति को मदद मिल सकती है और न मिथ्यात्व का पोषण हो सकता है । वास्तव में संसार में वर्तमान धर्मों में जैनधर्म ही वास्तविक 'तिन्नाणं तारयाणं' है । गुरुदेव ! आपकी आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाता हूं। प्रभो मातापिता की आज्ञा लेकर दीक्षा स्वीकार करुंगा !
सूरिजी-कज्जल ! इसमें तेरा और हमारा दोनों का ही कल्याण सन्निहित है। धर्म की मान मर्यादा भी इसी में ही है।
____ कज्जल -- जी हां ! कह कर सूरिजी के चरणकमलों में वंदन किया और माता-पिता से आदेश प्राप्त करने के लिये अपने घर पर चालकर आया । घर पर आते ही मातापिताओं के सम्मुख दीक्षा के लिये आग्रह करने लगा व सूरिजी के साथ में हुई वार्तालाप का सकलवृत्तान्त कहने लगा। माता पिताओं को बहुत ही आश्चर्य एवं दुःख हुआ कारण, वे काजल को अपने से विमुक्त नहीं देखना चाहते थे पर कज्जल का निश्चय तो अचल था। बहुत अनुकूल, प्रतिकूल कथनों से समझाने पर भी जब कज्जल ने अपना
कजल का वैराग्य
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