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________________ वि० सं० ७७८-८३७] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास इस प्रकार समयज्ञ सूरिजी ने दो शब्द और उसके वैराग्य को विशेष पुष्ट एवं दृढ़ करने के लिये कहे । कज्जल-पूज्यवर ! मेरी तो एकाकी दीक्षा स्वीकार करने की ही इच्छा है; किन्तु मेरे माता पितामेरी शादी कर मुझे सांसारिक स्वार्थ मय प्रपञ्चों में एवं मोहपाश में बद्ध करना चाहते हैं अतः मुझे दीक्षा के लिये सहर्ष वे आदेश दे देवेंगे इसमें बहुत कुछ शंका है । तो क्या उनके आदेश बिना भी अन्य किसी स्थान पर--जहां आप विराजित होंगे--- मेरे आने पर मुझे दीक्षा दे सकेंगे ? सुरिजी-काजल ! इससे तेरी भावनाओं की दृढ़ता तो अवश्य ही ज्ञात होती है किन्तु माता पिता की आज्ञा बिना दीक्षा देना हमारे कल्प विरुद्ध है । इससे हमारे तीसरे महाव्रत में दोष लगता है। श्रमण वृत्ति एवं चारित्र धर्म कलंकित होता है । हमारे पर चोरी का कलंक लगता है। यदि हम भी ऐसी तस्कर वृत्ति करें तो फिर हमारे और चोरों में फरक ही क्या रहेगा ? दूसरा तेरे लिये भी यह एक दम व्यवहार विरुद्ध अनीति का ही मार्ग है कारण आज तू माता पिता की आज्ञा का अनादर करता है तो, कल हमारी आज्ञा का भी उल्लंघन करेगा। इससे तुम्हारा और हमारा आत्मकल्याण कैसे हो सकेगा ? तुम्हारा तो कर्तव्य है कि हरएक तरह से नम्रता पूर्वक माता पिताओं को समझा बुझाकर उनकी आज्ञा प्राप्त करके ही दीक्षा स्वीकार करो। इससे तुम्हें आत्म वंचना का दोष भी नहीं लगेगा और हमारे साधुत्ववृत्ति में भी किसी भी प्रकार का भांगा उपस्थित नहीं हो सकेगा बिना आदेश के तस्करवृत्ति को अपनाना तो चारित्रवृत्ति को दृषित ही करना है अतः किसी भी कार्य में अपने पवित्र कर्तव्यों का विस्मरण करना अज्ञानता है। कजल ! तेरे पिता के तो तेरे सिवाय चार पुत्र और भी है और अभी तक तेरा विवाह भी नहीं हुआ है। पर पूर्वकालीन महापुरुषों को आदर्श त्याग का तो विचार कर । देख-थाबच्चापुत्र मेघकुमार, धन्नाकुवर, जमाली कुमार शालिभद्र, और अमन्त कुमार वगैरह तो अपनी २ माता की इकलोतीसी सन्तान थे। इनके पीछे क्रमशः आठ एवं बत्तीस २ विवाहित स्त्रियां थी फिर भी ये सब महापुरुष अपने २ माता पिताओं को हर एक तरह से समझा बुझाकर ही दीक्षित हुए तो क्या तू इतना ही नहीं कर सकता है। अभी तो तू गार्हस्थ्य सम्बन्धी प्रत्येक झंझट से मुक्त स्वतंत्र है। वैवाहिक बंधन पाश से अलग है अतः हर एक कार्य को श्रासानी से सम्पन्न कर सकता है। काजल ! जैनधर्भ न्याय एवं नीतिमय है । यदि धर्म में अनीति का जरा सा भी स्पर्श हो तो संसार से पार होना ही मुश्किल है अतः धर्म व्यवहार से भी माता पिता की आज्ञा बिना न तो तुझे दीक्षा लेनी चाहिये और न मुझे देनी ही चाहिये । कन्जल --गुरुदेव ! जब मेरी तीव्र इच्छा दीक्षा लेने की है तो इसमें माता पिता के आदेश की जरूरत ही क्या है ? वे तो अपने स्वार्थ के कारण आज्ञा प्रदान करें या न करे आपको तो लाभ ही है। श्राप मेरी इच्छा से मुझे दीक्षा दे रहे हैं अतः मेरी आत्मा का कल्याण होगा तो फिर आपको क्या हानि सहन करनी पड़ेगी? सूरिजी-काजल ! तेरी दीक्षा लेने की भावना है यह एक दम निर्विवाद सत्य है और दीक्षा लेने से तेरी आगा का कल्याण होगा इसमें भी किसी तरह का संदेह नहीं है पर व्यवहार को तिलान्जली देकर निश्चय को ही स्वीकार कर लेना स्वाद्वाद सिद्धान्त के विपरीत है । व्यवहार ऐसा बलवान है कि निश्चय के साथ उसको भी समान मान देना ही पड़ता है । दूसरा जैन सिद्धान्त 'तिन्नाणं तारियाणं' अर्थात्- आप स्वयं संसार से तिरे और दूसरों को भी संसार समुद्र से तार कर पार उतारे-ऐसा है न कि श्राप डूबे और विना आज्ञा दीक्षा की चर्चा ११३० Jain Educatio te national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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