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आचार्य ककरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
था। कज्जल इतना भाग्यशाली एवं पुण्यवंत जीव था कि इसके होने के पश्चात् उसकी माता सेणी ने चार पुत्रों को और जन्म दिया। जब कब्जल की वय २२ वर्ष की हुई तो भीमदेव ने उसका वाग्दानसम्बन्ध कर दिया था । विवाह होने में अभी दो तीन वर्ष की देरी थी तथापि सबने बड़ी २ आशाएं बांध रक्खी थी।
इधर यकायक पुण्योदय से आचार्यश्री सिद्धसुरिजी महाराज का पधारना गोसलपुर में हुआ तब राव आसल वगैरह श्रीसंघ की प्रार्थना से सूरिजी ने गोसलपुर में चातुर्मास कर दिया । चातुर्मास की इस दीर्घ अवधि में आचार्यश्री के व्याख्यानों ने जन समाज पर बहुत ही गहरा प्रभाव डाला। आप अपने व्याख्यानों में त्याग वैराग्य तथा आत्मकल्याण के विषयों पर अधिक जोर देते थे अतः कईभावुकों का मन संसार से उद्विघ्न एवं विरक्त हो गया था। कज्जल भी उन्हीं विरक्त एवं उदासीन मनुष्यों में से एक था । सूरीश्वरजी के वैराग्यमय उपदेश ने कज्जल के युवावस्था जन्य मद को वैराग्य के रूप में परिणत कर दिया । वह दीर्घ दृष्टि से विचार करने लगा कि-जितना परिश्रम संसारावस्था में रह कर उदर पूर्ति के लिये किया जाता है उतना ही मुनिवृत्ति की अवस्था में रह कर श्रात्मकल्याण के लिये किया जाय तो सांसारिक जन्म जन्मान्तर के प्रपञ्च ही नष्ट हो जाय एवं अक्षय सुख मिल जाय मेरी इस युवावस्था का उपयोग संसार वर्धक विषय कषायों में न कर तप, संयम एवं चारित्र की आराधना में किया जाय तो कितना उत्तम हो? ऐसा कौन मुर्ख होगा कि जो पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हस्ति का दुरुपयोग लकड़े के भार को लादकर करे, सोने की थाल में मिट्टी व कचरा भरे, स्वर्ण रस से पैर धौवे, चिन्तामणि रत्न को कौवे उड़ाने में इस इधर उधर फेंक दें ? अतः मुझे प्राप्त हुई इस मानव भव योग्य उत्तम सामग्री का सदुपयोग आत्मकल्याण मार्ग में प्रवृत्ति करके करना चाहिये । इस प्रकार का मन में दृढ़ निश्चय कर कज्जल समय पाकरसूरिजी की सेवा में उपस्थित हुआ और वंदन करने के पश्चात् विनयपूर्ण शब्दों में अपने मनोगत भावों को प्रदर्शित करते हुए कहा-भगवन् ! मुझे आत्मकल्याण करना है । मुझे संसार से सर्वथा अरुचि एवं घृणा होने लगी है । गुरुदेव मुझे संसार के दुखों से भय लगता है इस क्षणभंगुर जीवन के लिये रोरव नरक का पापोपार्जन करके अपनी श्रात्मा कलुषित नहीं बनाना चाहता हूँ। प्रभो! मेरा शीघ्र ही उद्धार कीजिये । इस प्रकार कज्जल के वैराग्य मय वचनों को श्रवण कर सूरीश्वरजी ने उसके वैराग्य को और दृढ़ करते हुए कहा-कज्जल ! तेरे विचार अत्युतम एवं आदरणीय हैं कारण, संसार असार है; कौटुम्बिक मोह स्वार्थ जन्य प्रेम परिपूर्ण है, यौवन हस्ति कर्णवत् चंचल है, भोग विलास एवं पौद्गलिक सुखमय साधन भुजंग सदृश विषव्यापक, क्षण विनाशी एवं दुःखमय ही है । सम्पत्ति--आकाश के गन्धर्वनगर की भांति अस्थिर है, आयुष्य अन्जलीगतनीरवत् अनित्य है । शरीरक्षणभङ्गुर है और अनेक आधिव्याधि उपाधि का स्थान है अतःमनुष्यभव और उत्तमसामग्री का एकमात्र सार आत्मकल्याण करना ही है । कज्जल ! तू तो एक साधारण गृहस्थ ही है पर, बड़े २ चक्रवर्तियों ने चक्रवर्तीऋद्धि एवं ऐश्वर्य का त्याग कर भगवती दीक्षा की शरण स्वीकार की है कारण उक्त सब ठाठ दुःख मिश्रित क्षणिक सुखरूप है तब चारित्रवृत्ति एकान्त सुखावह है, इस भव और परभव दोनों में ही कल्याणकारी है। इसके विपरीत जिन चक्रवर्तियों ने संसार में रह कर सांसारिक भोगों को ही उभयतः श्रेयस्कर जाना है वे आज भी सातवीं नरक की असह्य यातनाओं को भोग रहे हैं । कज्जल ! वर्तमान में तो तेरे पास ब्रह्मचर्य रूप अखण्ड रत्न वर्तमान है अतः इसके साथ तप संयम या ज्ञान दर्शन चारित्ररूप रत्नत्रिय का समागम हो जायगा तो सोने में सुंगध की लोकोपस्यनुसार तू अक्षय ऋद्धि का स्वामी हो जायगा कारण, सर्व गुणों में ब्रह्मचर्य ही उत्तम एवं प्रधान गुण है।
आचार्यश्री का व्याख्यान
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