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________________ वि० सं० ७७४-८३७] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४२-प्राचार्य श्री कक्कसूरि (नवम्) जातस्त्वार्यकुले दिवाकरनिभः श्रीककसरीः सुधीः दीक्षाभावगतः कुमारवयसि ग्रामस्थलारण्यगः । लोके जैनमतं प्रचार्य बहुधाऽनेकान् जनान् दोक्षया कीर्त्याऽद्यापि विराजते बहुमतो मान्योऽमरो भूतले ।। & AR ज्यपाद, परम त्यागी, उत्कृष्ट वैरागी, शान्त, दान्त, तपस्वी, चन्द्रवत् निर्मल तथा सौम्य, सूर्यवरोजस्वी, समुद्र के समान गम्भीर, कनकाचलवत् अकम्प, पृथ्वीवत् क्षमावान्, धैर्यवान् कांसी पात्रवत् निर्लेप, शंखवत् निरंगण, चंदन समान शीतल, भारण्ड पक्षीवत् अप्र. मत्त, कमलवत् निर्लेप, वृषभवत् धौरी, सिंहवत पराक्रमी, गजवत् अजय, वृक्षवत परोपकार निमग्न, सतरह प्रकार के संयम के धारक, बारह प्रकार के तपके आराधक, दश प्रकार के _ यति धर्म के साधक, अष्टप्रवचन माता के पालक व प्ररूपक, सूरी की आठ सम्पदाय एवं छत्तीस गुण के धारक आचार्यश्री ककसूरीश्वरजी महागज एक महान प्रभावक, युग प्रवर्तक, धर्म प्रचारक प्राचार्य हुए हैं। आपका जीवन चरित्र पट्टावलियों में बहुत विशद रूप में वर्णित है परन्तु हमारा उद्देश्य एवं पाठकों की जानकारी के लिये यहां संक्षेप में ही लिख दिया जाता है । पाठक वृंद चालीसवें पट्टधर आचार्यश्री देवगुप्तसूरिके जीवन में पढ़ पाये हैं कि स्वर्गीय देवगुप्त सूरि ने यदुवंशावतंस आर्य गोशल को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इसो राव गोशल ने सिंध धरा में गोशलपुर की स्थापना की थी। प्राचार्यश्री ने भी गोशलपुर नरेश की प्रार्थना से एक चातुर्मास करके पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा भी करवाई। इसी गोसलपुर में यदुवंशीय भीमदेव नाम के आर्य जाति के एक श्रावक रहते थे । भीमदेव के जैन धर्म स्वीकार करने के पश्चात् उनकी शादी श्रेष्टि वंशावतंस जोधा की पुत्री सेणी के साथ हुई थी। भीमदेव बड़े ही पराक्रमी क्षत्रिय थे। उन्होंने कई बार म्लेच्छों के साथ युद्ध में टक्कर ली और उन्हें परास्त किये । भीमदेव के छ पुत्रियों के पश्चात् एक पुत्र हुआ। वह दीखने में देव कुमार के समान बहुत ही रूपवान् गुणवान् एवं धार्मिक था । दृष्टिपात न होने के कारण उसका नाम कज्जन रख दिया था । आर्य भीमदेव के प्रभुपूजा का अटल नियम था वे संग्राम में जाते तब भी प्रभु प्रतिमा को साथ में रखते । बिना अर्चना, पूजन किये मुंह में अन्न जलभी नहीं लेते । मातेश्वरी सेणी का लक्ष्य भी इसी तरह धर्म कार्यों में था। वह अपने षट् कर्म में नित्य नियमानुसार सदैव तत्पर रहती। कभी भी अपने नियम व दिनचर्या में किसी भी तरह का स्खलन-विघ्न नहीं होने देती। जब माता पिता धर्मज्ञ होते हैं तो उनके बाल बच्चों पर भी धर्म के उसी तरह के स्थायी संस्कार जम जाते है । प्रकृति के इस प्राकृतिक नियमानुसार कज्जल का ध्यान भी धर्मकार्य की ओर विशेष था । वह भी अपने बाल्यावस्थानुकूल बहुत कुछ नियमों को रखता था। विद्याध्ययन में तो आप अपने सब सहपाठियों में हमेशा अप्रसर रहता ११२८ गोसलपुर में सूरिजी का चतुर्मास Jain Education international For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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