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________________ वि० [सं० ७७८-८३७] सोजत के वेद मुहता । ++ रोगट सोजत विंटी रायमल कोट अणखोले 'पतो' कहै। मोटी रीत घरे मुहतोरे, राज मुहतों गढ़ रहे ॥ ++++ वीवर गढ़ है कीणी खेतावती, अजमालीत रहे गढ़ और रीत उमाण वह 'राजद' जगतो रह्यो माजोर सोजत असीमियाणी, सोनीगरा जुडता आया । आद जुगाद मुरचरतणा, मुद्दतो घर मान सर्वाया ॥ वीर वैद महत्ता पाताजी को गीत. ठाकुर पांचो पांच भूतथी तरहे । संकेतन नित राखे । ससाखो हुव सीमयाणो 'पातळ' मरू कीरती पाले ॥ + 1 + + नाडी नाडी नित सुरज भुरजि, धुडतो जाय अरियों थाष्ट । हंस 'पतो' बुगलो को लायो। देदी दुरंग हुवो दह वाट ॥ मोटाइ पण तुं हाल 'मुहत्ता' मह कोइ छडेन फोझमझार नारायण कन्हे ला नारायण, तु आयो बन्ध तलवार ॥ खमे न ताप व्हारो दल खल | सनमुख छडे पाखर शेर । दानी हाथ रायमल दुजा सूरढा चमक्या देखी समसेर ॥ 1 + + + अहिरण रण, खेत हाथोडो अवध सास धर्माणि तप गेस सहई । आठि पोहर अथकित उभो धडदल रयण घडे घण घाई ॥ करीयो रोस कोप्यो दावानल, धडधड उमर धाइ पडे । बैनाणी 'पातावत' अरिबद्ध जडा उखेडत त्रिजड जडै ॥ सीवाणा का वैद मुहता राजमी. गढ सीवाणो गाजियो, राजियों के तरवार प्राण देइ पण राखियों, सुखी कोयो संसार ॥ धम्मं हेते धन खरचियों, पोपाशाहा प्रधान । + + वेदों ने वरदान | आगे ही सचायिका तणो । खपिया तेरह खान | तपियों मुहतो तेजसी३ ॥ + + कोडो द्रव्य लुटावियों। होदा उपर हाथ । १ अजो दील्ली को पातशाहा । राजा तो रूघनाथ २ ॥ + + + भोपाल उचारणा । भोमा हंदी वाढ । तन धन सघलो ते दीयो । राख्यो देवा मेंवाढ ॥ १ जोधपुरमरेश. १भंडारी ओसवाक ३ जाखीरा वदमुता. जीमणवार १३१० Jain Education International [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास लाख जखोरो निपजे । वह पीपल की साथ । नटीयों मुत्तो नेणसी। साथ देण तलाक ॥ + + जगहू ग जीवाडीयों दोनों दान प्रमाण | तेरा सो पनोतरे । अब विच उगो भांण ॥ + + सौ सौनारो एक ठग । सो ठग ठाकुर एक । सौ ठाकुर भेला हुवे | जद अक मुत्सद्दी एक ॥ X + + थेरू जैसाणे हुवो। आसकरण मेडते । भरी मेवाडमे शाहा भोमो कण्डरी धरतीमे जगडवो कहिजे जिम जगमें टॉपरेशाहा टामो ॥ एक चारण अपने यजमान कि तारीफ. वागो जब यज्ञः मांडियों । तब नीवतियो सब मेवाड । गोलारोठांरी गाली । जदा हुवा धूधला पहाड ॥ इस पर एक जैन कविने कहा किनगरूप जुग जिमाडियों । निवतिया सब नव खण्ड | सिर सपिया वालंग तणा । काजलिया ब्रह्ममंण्ड ॥ आर्य जाति के वीर शारद मात नमु सरस्वती। कर वीणा पुस्तक बाँचती । मावा वरदो सुधरे मती करूँ ख्यात आयरिया ती ॥ १ ॥ उमानन्द शरण तो पाउ भक्ति कर गणपति मनाउ । मात चारणी शीश नमाड कुछ अवतंस यादुवंश गाउ ॥ २ ॥ मच्छदेश उजारण आये शत्रु दलबल खलसांच मचावे | सुभट भट से सहल संघाते सिन्ध धराधर जीव बचाते ॥ ३ ॥ मिल्या गुरु वसुदेव सम वाणी सुन उपदेश आत्म उराणी । रिधि सिधि सम धर्म बतायो । अक्षय निधान तसु वयणे पायो ॥ + + + पारसदेवक, नगर बसायो । छुटो राज, राज पुनः पायो । 1 दिन दिन परगल पुन्य सवायो कल्पतरू निज अंगण आयो ॥ जैनधर्म फलियो तरकाले । गोसल सुकृत कर धर्म संभाले । पट्टधर आसल नाम कमायो। संचयत कुळवर ओर सवायो ॥ देशल देश देश जुग चावो । सांगण सुभट झूजर ही पावो । सुलतान सूर उदयो अवचल । धर्म कर्म देपाळ दाता बल ॥ हाम भण हरपाल हंस भलेरी । दुर्जग सज्जन समरीत कजेरी ॥ राम बिड मण्डण सुमंदण | कारण भोग रिपु दल खंडण ॥८॥ तस सुत गोसह राम-राम तज । For Private & Personal Use Only महाजन संघ की प्राचीन कवित www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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