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________________ आचार्य ककासूरि का जीवन ] [ओसवाल सं. ११७८-१२३७ + खडग जड बाजती अचल खेले। धारा नगरीके वैद मुहत्ता. सीधरे हुकमी जिणदासरो सीघलो ठाकुरो आठवे अनड ठेले १ धाराधिप देहलने, पद मंत्री सिर था। कहर कोठेतणां बेरहर कांपिणं, शाहा मोटो सामन्त, जगत सगलो दुःख कापै । जुडण जंमजाल सोइ घात जाणे नब खंड नाम देशल कियों, सोनपाल सुत्त जाणे सहु ॥ आभि थाभादीये बैदबंसी आभरण, दुनियों राखण दुकालमें, वैद मुहत्तोतणां गुण केता कहु ॥ आठ कुल बाथगहि हाथ आणे जैन हत्थुडिया राठोड शाह रत्नसी. भीछभीम रामरे लंकदल भांजियां, साकर गढ सा पुरुर, खारदीवा खेतडा । भीछ डम धजरो थाट भंजे । पुथीयाल(ने) दानका माल अपहो आपे त्तदा । पिसण पाधोरि बातणो कोइ पांतरो खेमशी लखीपाल लख ओपमा केम वखाणु ॥ गिरसिखर हाथलां मारि गंजे नवखंड देश खेरडाबडा वडा नाम परीयाणु । पाडि भड देवडा, मेछ परतालीया ओसवाल गोत थारो अचल वाचामे लखमी वसी ॥ पिसणतो सरस कुग थाइपुजे घोरम सुत्तन किजे बहुत युग युग राज रत्नसी। त्रिजड हय सोह अणबीह माहरा, + + धकारी मारीयो मेह धुजे ॥ सरवर फूटा जल वहा, अब क्या करो जतन । कलब भीरसहन भारी भुज भीम सम, जाता घर शाहजपाँ का, राखा एवं रतन ।। भरथीमल भारथ जोधन की धुरसी वावन काटटे छप्पन दरवाजा, पीनामई नाहन वहा राजा । रठमठ करन कठिन गढ कोट गाढे. महाजत मदद जमाया राज, बिन महाजन गँवाया राज। ढुकि ढोहि ढाहि देत तनक में तुरसी शूरवीर संचेती. जिनदासनंद जरजरी जर बकसत, थान सुधीर रिणथंभ, मान आपै महीपति । बल्ह कवि बिरद कुरसी दर कुरसी दुनियों सेवत द्वार सदा चित्त चक्रवत है संचति ॥ साहिनि मालिम सिकबंध निके सिरताज, आथ हाथ उधमै करे उपकार जग केतही। साकरे सनाह सुन्यो ठाकुरसी पातशाहा पोषीजे, जुगत दीखावे जैतसही ॥ भाद्र गौत्र समदडिया साखाके वीर. सरदर से इण संघमें सिरे, जगह जुग तालोलीलो। गुरु कक्कसूरि करी कीरपा, जैतसी सुत जग उगीयों । 'मेहराज' सिंह 'दाता' समुद' आदू सुत्त उदयो इसो ॥ सगलों सिरे संघपति, यो पारसनाथ भल पूमियो॥ + + तुरी चढीया तीन हजार, गज उगणीस मद झरतां । सेवत दुवार बडे बडे भूपत, देख सभा सम्पति हो भूले । उँटों लदीजे भार लहरा सात भरडाटा करतो ॥ रइस धराधर सोभीतद्वारे, जैसे वनमें केसर फूले ॥ सहस चार रथ जाण सहस दस गाडी साथे । संचेती कूलदीपक प्रगटयो, देख कबिजन एसे बोले । नरनारी नही पार गीणती कण लेवे हाथे ॥ सिंह 'मेहराम' के नन्द करंद, केहत कमीच सतरारूसोलो ॥ भाद् गोत्र उदयो भलो समुदो सम अथाहा । रणथंभोर के संचेतीयो का संघ । समदडिया कुल उजालोयों धर्मशी बद्ध वहा । मारवाड मेवाड सिंध धरा सोरठ सारी। टीकुशाह की उदारता कस्मीर कागरू गवाड गीरनार गन्धारी ॥ पडियो भयंकर काल महा विकराल भुजंग जिसो ॥ अलवर धरा भागरो छोड्यो न तीर्थ थान । भू ब्रह्मांड थइ एक, तब पुच्छे राय करवं किसो । पूर्व पश्चिम उत्तरदाक्षिन पृथवी प्रगटयो भान ॥ शाहा सिरे लक्ष्मी घरे इणनगरी काहा टीक वसे ॥ नरलोककोइ पूज्या नहीं, सचेतीथारे सारखो। तेखाव्यो तीणबार जब, जातो काल डग डग हसे । चंन्द्रभान नाम युग युग अचल, पहपलटे धनपारखो। महाजन संघ के प्राचीन कवित १३०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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