SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य कक्कमरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ व्यापार करण मन रज सज ॥ पास तणे टोटो पट्टोधर खरा विरुद्ध खाटे भलवेसर वर व्यापार अपार पामे बह लच्छही। तस घर लुणो अवतरियो, नवखंड कियो ज नाम काटण पाप संताप संचे सेपत सच्ची ॥ देवी चारणी सहनिध करे, सुघर सुधारे सहु काम पुहवी पसरिया नाम काम सुवदिता । सुवर्ण लाट बादसाह मांगी दीली शाह मील अति तांगी देवधर दातार दुर्बल की भाजे चिता ॥ गुड़ नगर चलके साहु आये लुणो देवी तुरत मनावे शाह पदवी पामी सघर जपी मंत्र नवकार । आशा पुरी शाह की जग में अमर नाम । संघपती दुनियो नमे गोवाल सुत गुणधार ॥ लुणो ते संसार में कियो केतो बड़ो काम ॥ अगर चंदन कुकुमो पूजिजे जिनपाय । + धर्म हित धन वावरे सहसगुणा हो जाय ॥ आर्य गोत उदार सिन्धुदेश प्रसिद्धो, देवधर सुत गोल्हु दीपे दिन दिन भाण । लखमणसिंह लेख देव सुजस मयिल जिण लीधो ___ कल्हण दाता समै गत दालिद्रपिाण ॥११॥ राबसिंह रड़ियाल तास सुत छाबड़ जाग', कल्हण कल्पतरु हुओ लखमसी। धनदतने वली पासदत शाह टोटा बखारणो तसु वरदान कर लच्छी वसी॥ वंश लुणा घर अवतरी संघ जैन शत्रुजय कियो, देव गुरु धर्म हित धारी कीती कहु ओर विस्तरी। नगराज भादि एक दशतनु पुत्र पौत्रादि विस्तरियो __ + + + इल उदय अवर कत सीत करण निस्तरी। टोटा तण उध्यो कल्पतरु । सहसमल वसियों खिवसर । सिन्धधरा त्यागी लखमसी। | उदयो लुण गढ़े अण भंग दानेसर सता एक परणी महेसर। भूमिवास मरुधर मनवसी॥ शाह सारंग जब त्या आवियों। विविध भोज लुणे करावियो । सत हत घर देश बासहीपुरो। शाह समझावे बहु बहु परे । न्यात न माने एक लगार ॥ __ सघन अनगल उंग्यो धर्म अंकुरो । निज सुता सारंग तणी। परणाइ शाह लुणा प्रीत अपार ॥ संवत बारे चोदोतड़े वरसे। आठ नन्दन महसरणी के हुए। अष्ट सद्धि कियो घरवास । वद वैशाख तीज सीत सरसे ॥ जस कत बहुपरि सारंग साजी । न्याति लोग जड़ न मति भाजी। शुभ दिन लखमसी भाप महाबल । निज सुता शाह लुणा कर समरप्प। तब जाति मनु समजि अपराप्प वित वहेलेव वास कियो अतुली वल ॥ सधर सुत एकादस लुणाघरे । तसुभागे बहु लछी अनुसर । जिणे प्रसाद कराव्यो सुबर्ण कलस समेत । जात सतुजै बहुविध करे । प्रगललछी त्या सुवावरे ॥ शुभ प्रतिष्ठा पर दियो याचक दाम अमेत ॥ उदयकुल आर्य नवखण्ड कियो ज नाम । लखमसी लाहो लखमी तणो । कविवल्लण इम उच्चरे लुणा लावण्य काम ॥ मात चारणी सुप्रभाव गणो ॥ वेदमुता नारायणजी रो गीत तस पट्ट हुओ राजसी रढ़िया लो। वरसौ सो लगे सुपुहवी वरतण खत्रबट तणे भरोसे खाये । लंकालो एव राव राणों सिरे ॥ नारायणे कहे दलनायक नर न्हा सै सुजा किसे भ्याये ॥१॥ कुल उजालण राजदो सिरे, धर्म कर्म कीर्ति समद्र पारो फिरे । घी लेजा ग्रास तणा गढ पतियां तेग वाजियो नख में ताव । राजप्सी घर चाहड़ हुआ। दान यश दुनियो उबरे कवि लोभण कठे काम करसौ जगदीसर आगली जवाब ॥२॥ धनदतथी धन मच्छर करे अचर लइव न विचरे पातल तणे पुण पट्टोधर जीवम जाणो बुहै जुआ। पासदत पारस सम पारस लोहा सुवर्ण करे । आगली घणजी के उतरया हरी आपली सरषारू हुआ ॥३॥ शत्रुजय जत्त जय, दलबल सज जात समाचरे परमल दान उदार याचक जन कीर्ति करे गीत-नारायणजी दुरसाजीरो । चार सुत चउ स्थल सहवाथा, जथ्थ जिणोद्धर सवायो मोटाई पीसण तु हाल मुहता मुह कोइ छोड़े न फोजमझार । महाजन संघ के प्राचीन कवित १३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy