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वि० सं०:११०८-११२८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अपनी ओर से मन्दिर के लिये आवश्यक भूमि को प्रदान कर सेठ के गौरव को बढ़ाया । क्रमशः राजा का श्रामार स्वीकार करता हुश्रा सेठ कदी गुरुदेव के पास आकर अपने व नृप के पारस्परिक वार्तालाप को सुनाने लगा। वृत्तांत श्रवण के पश्चात् आचार्यश्री ने कहा-कदी ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है । कदी ने भी सूरिजी के वचन को आशीर्वाद रूप में समझ कर शुभ शकुन के भांति गांठ लगादी। साथ ही अविलम्ब चतुर शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाकर मन्दिर कार्य प्रारम्भ कर दिया।
जब मन्दिर के लिये कुछ मुञ्ज वगैरह सामान अन्य प्रदेशों से मंगवाया तो चुङ्गी महकमा के अधिकारियों ने उस माल का टेक्स मांगा । कदी ने कहा-महानुभाव ! यह सामान मन्दिर के लिये आया है अतः इसका हांसिल आपको नहीं लेना चाहिये । धर्म के कार्य निमित्त आने जाने वाली वस्तुओं का टेक्स राजनीति विरुद्ध है, पर महकमा वालों ने हांसिल छोड़ना नहीं चाहा । जहां मन्दिर के लिये लाखों का ब्यय करना स्वीकार किया वहां चुङ्गी का थोड़ासा द्रव्य भारी नहीं था पर कदी ने इससे होने वाले भविष्य के परिणाम को सोचा कि इस प्रकार हांसिल लेना और देना अच्छा नहीं है। यदि कोई साधारण व्यक्ति ऐसा कार्य करे तो उनके लिये कितना मुश्किल है। बस कदी तत्काल पाटण नरेश के पास गया और चुङ्गी महकमे की आय की रकम में कुछ विशेष वृद्धि कर दाण महकमा अपने हस्तगत कर लिर हाथ में लेने के साथ ही साथ यह उद्घोषणा करवादी कि मन्दिर या परमार्थ के कार्य के लिये आने जाने वाली वस्तुओं का अब से हांसिल नहीं लिया जायगा।
कदी का प्रारम्भ किया हुआ मन्दिर बहुत ही तेजी के साथ हो रहा था । जब मन्दिर का मूल गम्भारा एवं रंगमएडआदि तैय्यार होगये तो कदी की इच्छा भगवान की अलौकिक प्रतिमा तैय्यार करवाने की हुई । मूर्ति मुख्यतः स्वर्णमय एवं कुछ अंश में पीतल आदि दूसरी धासुमों के मिश्रण से बनाने का निश्चय किया गया । इसके लिये इस कार्य के सविशेष मर्मज्ञों को बुलवाया गया।
जिस स्थान पर कदी ने मन्दिर बनवाया था उसके पास ही भावहड़ा गच्छ का प्राचीन मन्दिर था उस समय उस मन्दिर में भावइड़ा गच्छीय वीर सूरि नाम के प्राचार्य रहते थे। शायद उनको इर्षा हुई होगी कि कदी का विशाल मन्दिर बनजाने से हमारे मन्दिर की कान्ति एक दा फीकी पड़ जायगी अतः इस नवीन मन्दिर का बनना उन को खटकने लगा। श्रीवीरसूरिजी बड़े ही चमत्कारी एवं विद्याबली आचार्य थे। उन्होंने इस मन्दिर के कार्य में विन्न करना चाहा अतः इधर तो ४३ अंगुल की मूर्ति बनाकर उस पर अच्छी तरह से लप कर सब प्रकार की तैय्यारी करली और उधर सुवर्णादि सर्व धातुओं का इस अनि प्रयोग से तैय्यार होता कि वीरसूरि अपने मत्र बल से आकाश में बादल बनवाकर केवल उसी स्थान पर जहां मर्ति बन
थी वर्षा बरसाना प्रारम्भ कर देता। बप्त रस शीतल हो मन्द पड़ जाता अतः इस दुर्घटना से मूर्ति बन ही नहीं सकी। जब कदी ने किसी अज्ञात कारण को जानकर दूसरी वार रस तैय्यार करवाया पर दूसरी वार भी यही हाल हुआ तब तो उसके दुःख का पारावार नहीं रहा । वह नितान्त उद्विग्न एवं खिन्न होगया। आचार्यश्री सिद्वसूरि के पास आकर विवरा प्रार्थना करने लगा-पूज्यवर ! मेरा ऐसा क्या दुर्भाग्य है कि उज्वल भावना से किया हुआ कार्य भी एक दम माङ्गलिक रूप होने के बजाय विघ्न रूप हो रहा है। यह सुन सूरिजी को भी
आश्चार्य एवं दुःख हुआ। उन्होंने शीघ्रता से पूछा-कदी ! ऐसा क्या बिन्न हुआ करता है ? सेठ ने सब हाल अथ से इति पर्यन्त कह सुनाया और प्रार्थना की पूज्यवर ! श्राप जैसे जङ्गम कल्पतरु की विद्यमानता में भा मैं इस कार्य में सफल न होसका तो फिर उसकी आशा रखना ही व्यर्थ है।
इधर सूरिजी ने कुछ समय पर्यन्त गम्भीरता से विचार किया तो जान गये कि यह सब दूसरे को उन्नति को नहीं देखने रूप अहिष्णुता का ही परिणाम है। जिस नूतन मन्दिर के लिये खुशी मनानी थी, उत्साहप्रद शुभ वचनों से सेठ जी के उत्साह का वर्धन करना था वहाँ श्री वोरसूरि जैसे प्रभावक महात्मा
सुवर्णमय मूर्ति बनाने में वीरसूरि का विन
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