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श्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १५०८ - १५२८
को विघ्न करना सूझा ? खैर ! कदर्पी को सूरिजी ने कहा - किसी भी तरह से घबराने की आवश्यकता नहीं
इस बार मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। तुम तो अपना कार्य पूर्ववत् प्रारम्भ रक्खो । बस आचार्यश्री के सन्तोषप्रद वचनों को श्रवण कर सेठ कदर्पी ने तीसरी बार क्रिया की और वीर सूरि ने भी अपनी पूर्ववत् प्रवृत्यानुसार पुनः आकाश में बादल बनवाये । इसको देख सिद्धसूरिजी ने मन्त्र बल से उन बादलों को छिन्न भिन्न कर डाले अतः उनका थोड़ा भी प्रभाव प्रतिमा पर नहीं पड़ सका । बस सूत्रधारों ने सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्ति तत्क्षण तैयार करदी । सेठ ने मूर्ति के दोनों नेत्रों के स्थान दो ऐसी अमूल्य मणियां लगाई कि जिनका प्रकाश सहस्ररश्मिवत् रात्रि को भी दिन करने लगा। सेठजी का कार्य निर्विघ्नतया सफल होगया तब वह अञ्जनशलाका एवं प्रतिष्ठा की तैय्यारियां बहुत ही समारोह पूर्वक करने लग गया। आचार्यश्री सिद्धसूरि ने सर्व दोष विवर्जित शुभमुहूर्त दिया तब उक्त मुहूर्त पर खूब धूमधाम से प्रतिष्ठा करवा कर चरमतीर्थङ्कर संग वान् महावीर स्वामी की मूर्ति स्थापित करदी । सेठ कदर्पी ने इस प्रतिष्ठा में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । स्वधर्मी बन्धु को स्वर्ण मुद्रिका की प्रभावना देकर उनका सत्कार किया ।
उस मन्दिर में जो अवशिष्ट काम रह गया था उसको करवाने में सेठ कदप तो सर्व प्रकार से समर्थ था पर आपके आत्मीय सम्बन्धी बप्पनाग गौत्रीय शा० ब्रह्मदेव ने बहुत ही आग्रह किया कि - " इतना लाभ तो मुझे भी मिलना चाहिये” । अतः शेष रहा हुआ कार्य ब्रह्मदेव सम्पन्न हुआ । अहा ! यह कैसा मान पिपासा की आशा से रहित पवित्र समय था कि एक समर्थ धनाढ्य ने अपने द्रव्य से सम्पूर्ण मन्दिर बनवाया पर थोड़े से कार्य के लिये सहर्ष उदारवृत्ति पूर्वक दूसरे को श्रज्ञा प्रदान करदी । आज सवा सेर घृत की बोली से पूजा करनी हो और दूसरे ने भूल से करली हो तो मन्दिर में ही जंग मच जाता है। इसका मुख्य कारण यही कि आज नाम पैदा करने की कुत्सित भावना ही रह गई है जिसकी पूर्व जमाने में गन्धमात्र भी नहीं थी । श्रतः सेठ कदप के मन्दिर का शेष कार्य ब्रह्मदेव ने सम्पूर्ण करवा दिया ।
आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज जैसे जैनागमों के पारंगत थे वैसे विद्या मंत्र एवं निमित ज्ञान के भी परम ज्ञाता थे। पास में रहे हुए आचार्य वीर सूरिजी की करामात आपके सामने नहीं चल सकी तब अन्य मतियों के लिये तो कहना ही क्या था यदि उस समय इस प्रकार के चमत्कार एवं विद्याबल न होता तो अन्य मतियों के आक्रमण से जैनधर्म की रक्षा करना एक बड़ा भारो प्रश्न बन जाता जब कि उस समय के साधारण मुनियों के पास भी कई प्रकार की विद्या एवं लब्धियाँ थीं तब आचार्यपद धारक के लिये तो परमावश्यक ही था हो वे अपनी विद्या लब्धियों को काम में ले या नहीं ले पर होना बहुत जरुरी बात थी और इस प्रकार वादियों के आक्रमण से जैनधर्म की रक्षा करसके उनको ही अखिल शासन की जुम्मेवरी का सूरि पद दिया जाता था हम प्राचीन इतिहास को देखते हैं कि कई आचार्यों का पट्ट खाली रह जाता पर वे अयोग्य को आचार्य पद जैसे जुम्मेवरी का पद नहीं देते थे तब ही वे सूरि हो शासन की प्रभावना कर सकते थे जिसमें भी उपकेश गच्छ में तो प्रभु पार्श्वनाथ से एक ही आचार्य होते आये थे हाँ कोई शाखा अलग निकल गई और उनके आचार्य अलग होगये यह बात दूसरी पर उन पृथक् शाखा में भी आचार्य एक ही होता था उन आचार्यों में कितनी योग्यता थी कि वे एक होते हुए भी सर्व प्रान्तों में बिहार करने वाले तमाम साधु साध्वियों की सार सम्भार किया करते थे ।
आचार्य सिद्धिसूरिजी महाराज महान प्रभाविक युग प्रवर्तक आचार्य हुए आपका विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था आप प्रत्येक प्रान्त में विहार कर जैन धर्म का खूब जोरों से प्रचार किया करते थे शुद्धि की मशीन आपके पूर्वजों से ही चली आ रही थी जहाँ आपका पधारना होता वहां थोड़ी बहुत संख्या में अजैनों को जैन बना ही डालते और उन नूतन जैनों के आत्म कल्याणार्थ जैन मन्दिर एवं ज्ञान प्रचारार्थ पाठशाला आदि स्थापना करना देते उस समय धार्मिक पढ़ाई तो प्रायः जैन मुनि ही करवाते थे जिससे गृहस्थों में
सिद्धसूरि का चमत्कार और प्रतिष्ठा
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