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वि० सं० ११०८-११२८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विनय भक्ति का व्यवहार बढ़ता रहने से उन लोगों की देवगुरु धर्म पर दृढ़ श्रद्धा बनी रहती थी और थोड़ा भी सज्ञान गुरु गम्यता से लेने से वह जीवन पर्यन्त विस्तार पाता रहता था जब आज हम सबके सब उस समय से विपरीत होना देखते हैं गृहस्थ तो क्या पर जिस गच्छ में एक दो दर्जन आचार्योपाध्याय होने पर भी उनके शिष्य अन्यमतियों के पास पढ़ते हैं। अरे शिष्य ही क्यों पर वे आचार्योपाध्यायजी उन अन्यमतियों के पास पढ़ते हैं न जाने वे शासन का क्या उजाला करेंगे । सबसे पहले तो इस ब्राह्मणी पढ़ाई में जैनधर्म के मूल विनय गुण का ही सर्वनाश हो जाता है कारण एक ओर तो पण्डितजी गादी लगाकर बैठ जाते हैं तब दूसरी ओर मुनि या आचार्यादि जिसमें कौन किसका विनय करे कारण पण्डितजी तो विद्या गुरु होने का घमण्ड रखते हैं तब मुनि या श्राचार्य अपने त्यागवृति एवं संयम का गौरव रखते हैं । भला यह पढ़ाई क्या भाव पड़ती है ? जमाने ने तो यहाँ तक प्रभाव डाला है कि युवा साध्वियाँ भी अन्य मती पण्डितों के पास एकेली बैठ कर पढ़ती हैं। जब कि वे साधु साध्वियों जिनाज्ञा का अाराधना नहीं करके अर्थात् जिनाज्ञा का भंग करके पढ़ाई कर भी ले तो वे सिवाय उदरपूर्ति के अलावा क्या कर सकते हैं ? आज हम देखते हैं कि नये जैन बनाने तो दूर रहे पर जो पूर्वाचार्य बना गये उनका रक्षण भी हमारे से नहीं होता है हाँ समाज में थोड़ी थोड़ी बातों के लिये क्लेश कदाग्रह करके फूट कुसम्प अवश्य फैलाया जाता है और यही उनकी मान पूजा प्रतिष्ठा का मुख्य कारण है इससे ही सबका निर्वाह होरहा है खैर प्रसंगोपात दो शब्द लिख दिये हैं।
आचार्य सिद्धसूरिजी महाराज का परोपकारी जीवन पट्टावलीकारों ने बहुत विस्तार से लिखा है पर यहाँ स्थानाभाव मैं इतना ही कह देता हूँ कि प्राचार्यश्री ने अपने ४१ वर्ष के शासन में सर्वत्र विहार कर लक्षों मांस श्राहारियों को जैन धर्म में दीक्षित किये अनेकों को जैन धर्म की श्रमण दीक्षा दी अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ करवाई कई वार यात्रार्थ भावकों को उपदेश दे श्रीसंघ को तीर्थों की यात्रा का ला यह थी कि श्राप भ० पार्श्वनाथ की परम्परा के होते हुए भ० महावीर की परम्परा के साथ खीर नीर की तरह मिल कर रहते थे खुद आपके भी कई शाखाएँ निकली पर उनके साथ भी आपका द्वितीय भाव नहीं था यही कारण है कि उस समय के साहित्य में किसी के साथ किसी का खण्डन मण्डन का उल्लेख नहीं मिलता है । तब ही तो वे सबको साथ में लेकर जैन धर्म की विजय विजयंति सर्वत्र फहरा रहे थे। प्रसंगोपात हम अन्य गच्छों के आचार्यों द्वारा बनाये हुए नूतन जैनों का संक्षिप्त उल्लेख कर देते हैं।
१ कोरंट गच्छाचार्यों के बनाये हुए अजैनों से जैन श्रावकों की जातिये-जैसे उपकेशगच्छाचार्यों ने अजैनों से जैन बनाने की मशीन स्थापन कर लाखों नहीं पर करोड़ों जैनतरों को जैन बना कर जैनधर्म को जीवित रखा है इसी प्रकार कोरंट गच्छाचार्यों ने भी अजैनों को जैन बना कर उनके हाथ बटाये थे।।
__ पाठक पिछले पृष्ठों में पढ़ आये हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के छट्टे पट्टधर श्राचार्य रनप्रभूसूरि हुए आपके लघु गुरु भ्राता कनकप्रभूसूरि थे जिनको कोरंटपुर के श्रीसंघ ने श्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये तब से पार्श्वनाथ परम्परा की दो शाखाएं होगई । जैसे उपकेशपुर के आस पास विहार करने वाले प्राचार्य रत्नप्रभूसूरि की सन्तान उपकेशगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई तब कोरंटपुर के आस पास विहार करने वाले श्राचार्य कनकप्रभसूरि के श्रमण वर्ग कोरंटगच्छ के नाम से मशहूर हुए। और उपकेशगच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरि, यज्ञदेवसूरि, कक्कसूरि, देव गुप्तसूरि और सिद्धसूरि एवं पांच नामों से क्रमशः परम्परा चली आ रही थी। इसी प्रकार कोरंटगच्छ में आचार्य कनकप्रभसूरि, सोमप्रभसूरि, नन्नप्रभसूरि, ककसूरि
और सर्वदेवसूरि इन पांच नामों से क्रमशः परम्परा चली आई। इस प्रकार ३५ पट्ट तक तो उपरोक्त दोनों में पांच-पांच नामों से पट्ट क्रम चला आया पर उसके आगे देवी सचायिका के आदेशानुसार उपकेश गच्छ में रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि ये दो नाम रखना बन्द कर दिये अर्थात् उपरोक्त दो नाम भए डार कर दिये कि १४८८
_ अन्य गच्छीय आचार्यों के बनाये श्रावक
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