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श्राचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ घोसवाल सं० १५२८-१५७४
भविष्य में होने वाले आचार्यों के प्रस्तुत दो नाम नहीं रखे जाँग पर ककसूरि देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन नामों से ही परम्परा चले और इसी प्रकार ३५ वें पट्ट के पश्चात् उक्त तीन नाम से ही परम्परा चली आई है इसी प्रकार कोरंटगच्छ वालों ने भी आचार्य कनकप्रभसूरि सोमप्रभसूरि इन दो नामों को भंडार कर शेष आचार्य नन्नप्रभसूरि, कक्कसूरि और सर्वदेवसूरि इन तीन नामों से ही अपनी परम्परा चलाई ।
आचार्य स्वयं नभसूरि ने श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी में जिन जैन राजा प्रजा को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाये थे और आगे चलकर ग्राम नगरों के नाम पर श्रीमाल और प्राग्वट वंश से प्रसिद्ध हुए तब आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के राजा प्रजा के लाखों वीर क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर महाजन संघ की स्थापना की और आगे चलकर समयान्तर में वे उपकेशवंशी कहलाये ।
उधर श्रीमाल नगर से अर्बुदाचल तक का प्रदेश एवं आचार्य स्वयंप्रभसूरि के बनाये श्रीमाल एवं प्राग्ववंश आचार्य कनकप्रभसूरि और आपकी सन्तान परम्परा के आचार्यों की आज्ञा में रही और उपकेश वंश आचार्य रत्नप्रभसूरि और उनकी परम्परा के आचार्यों की आज्ञा में रहे । आज्ञा का तात्पर्य यह है कि उन लोगों को व्रत प्रत्याख्यान करवाना आलोचना सुनकर प्रायश्चित देना संघादि शुभ कार्यों में वासक्षेप देना और सार सम्भाल, रक्षण, पोषण वृद्धि करना इत्यादि शायद संकुचित दृष्टि वाले इन कार्यों को बाड़ा बन्दी समझने की भूल न कर बैठे पर इन कार्यों को संघ की व्यवस्था कही जा सकती है और इसी प्रकार संघ व्यवस्था चलती रही वहां तक संघ में सर्वत्र सुख, शांति, प्रेम, स्नेह, एकता और संगठन का किला मजबूत रहा कि जिसमें राग, द्वेष, क्लेश कदाग्रह रूप चोरों को घुसने का अवकाश ही नहीं मिला तथा इस प्रकार की व्यवस्था से उन आचायों के अन्दर आपसी प्रेम एकता की वृद्धि होती गई । और इस एकता के आदर्श स्वरूप एक श्राचार्यों के कार्यों में दूसरे आचार्य हमेशा सहायक बन मदद पहुंचाते थे प्राचीन पट्टावलि - यादि ग्रंथों में बहुत से ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि उपकेत गच्छ के आचार्यों ने जिस प्रदेश में विहार किया कि जहां श्रीमाल, प्रावट वंश की अधिक वस्ती थी वहां अजैनों का जैन बना कर उन्हें श्रीमाल, प्राग्वट वंश में शामिल कर दिये और जिन कोरंटगच्छाचाय्यों ने ऐसे प्रदेश में विहार किया कि जहां उपकेश वंश के लोगों की अधिक संख्या थी वहां उन्होंने अजैनों को जैन बना कर उपकेशवंश में शामिल कर दिये थे। हां, ये तो दोनों गच्छ पार्श्वनाथ की परम्परा के थे पर जब हम इतिहास को देखते हैं तब यह भी पता मिलता है कि भगवान् महावीर की परम्परा के आचार्यों ने जहाँ तहाँ अजैनों को जैन बनाये थे वहाँ श्रीमाल, प्राग्वट और उपकेशवंश इन तीनों वंशों में से जिस किसी भी विशेष्ट अस्तित्व होता उनके ही शामिल मिला देते थे । यदि उनके हृदय में संकीर्णता ने थोड़ा ही स्थान प्राप्त कर लिया होता तो वे अपने बनाये श्रावकों (जैनों को जैन ) को पूर्व स्थापित वंशों में न मिला कर अपने बनाए जैनों का एक अलग ही वंश स्थापन कर देते पर ऐसा करने मैं वे लाभ बजाय हानि ही समझते थे उनको बाड़ा बन्दी नहीं करनी थी पर करनी थी जैन शासन की सेवा एवं जैन धर्म का प्रचार । जहां तक दोनों परम्परा के आचायों का हृदय इस प्रकार विशाल रहा वहां तक दिन दूनी और रात चौगुनी जैन धर्म की उन्नति होती रही । जैन जनता की संख्या बढ़ती गई, यहां तक कि महाजन संघ शुरु से लाखों की संख्या में थी वहां करोड़ों की संख्या में पहुँच गई। प्राचीन पट्टावलियों एवं वंशावलियों से हमें यह भी स्पष्ट पता चल रहा है कि उपकेशवंश, श्रीमालवंश और प्राग्वटवंश यह एक ही महाजन संघ की, नगरों के नाम पर पड़े हुए पृथक् २ नाम एवं शाखाएं हैं। परन्तु उन सब शाखाओं का रोटी बेटी व्यवहार शामिल ही था । अरे ! इतना ही क्यों ? पर जिन क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर महाजन संघ में शामिल कर लिया था बाद में भी कई वर्षों तक उनका बेटी व्यवहार जैनोतर क्षत्रियों के साथ में भी रहा था । वे समझते थे कि किसी क्षेत्र को संकीर्ण कर देना पतन का ही कारण है और हुआ भी ऐसा ही ज्यों ज्यों वैवाहिक क्षेत्र संकीर्ण होता गया त्यों त्यों समाज का पतन होता गया । पर पूर्व जमाने में समाज
का विहार क्षेत्र
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