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वि० सं० ११२८-११७४ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
की बागडोर प्रायः जैनाचाय्यों के ही हाथ में थी वे लोग जो कुछ करते उसको महाजन संघ शिरोधार्य कर लेता था तथा इस उदारवृत्ति का प्रभाव अन्य लोगों पर काफी पड़ा था जिन जैनेतरों ने जैन धर्म स्वीकार किया था वे केवल धर्म को अपना ही नहीं पर कई लोग अपनी व्यवहारिक सुविधाएं को भी साथ में देखी थी और जैन लोग भी नये जैन बनने वालों को सब तरह की सुविधाएं कर देते थे । कारण उस समय के महाजन संघ के हाथ में एक तो व्यापार और दूसरा राज तंत्र ये दो शक्तियें महान थी कि नये जैन बनने बालों को उनकी योग्यतानुसार किसी भी कार्य में लगा कर उनको सहायता पहुँचा सकते थे । और यह क्रम विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक थोड़ा बहुत प्रमाण रूप में चला ही आरहा था, जिन मांस मदिरा सेवी क्षत्रियों को आचार्यों ने प्रतिबोध देकर जैन बनाये उसी समय उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार बड़े ही उत्साह के साथ चालू कर देते थे इसकी साबूती के लिये भिन्न-भिन्न जाति के राजपूत पृथक २ समय में जैनधर्म स्वीकार किया था पर उन सबका रोटी बेटी व्यवहार अद्यावधि शामिल चला आ रहा है ।
प्रसंगोपात इतना लिखने के पश्चात् अब हम कोरंटगच्छाचार्यों के बनाये श्रावकों की जातियों की उत्पत्ति का हाल संक्षेप से लिख देते हैं ।
पहले तो मुझे इस बात का खुलासा कर देना जरूरी है कि उपकेशवंशादि वंश की जितनी जातियां पूर्व जमाने में थी एवं वर्त्तमान में है वे किसी आचार्यों ने स्थापन नहीं की थी न उन जातियों के नाम कारण होने का निश्चय समय ही है ओर न जैनों से जैन बनते ही वे जातियां बन गई थी परन्तु पूर्वाचार्यों ने तो श्रजैन लोगों का अभक्ष खान पान एवं अत्याचार और अधर्म एवं हिंसादि छुड़ा कर जैन श्रावक बनाये थे वह समयान्तर में कई-कई कारणों से जातियों के नामकरण होते गये। जिन कारणों को इसी ग्रन्थ के पिछले पृष्ठों पर हम लिख आये हैं जिज्ञासु महानुभाव पृष्ठ पलट कर देख लें ।
यह बात भी हम ऊपर लिख आए हैं कि पूर्व जमाने में किसी गच्छ समुदाय के आचार्यों ने अजैनों को जैन बनाये वे पूर्व बनाये हुए वंशों में शामिल कर दिये थे पर अपनी बाड़ा बन्दी के लिये अपने बनाये श्रावकों को पृथक् २ नहीं रखे थे। पर विक्रम की नवमीं दसवीं शताब्दी के आचार्यों के हृदय ने पलटा खाया और वे अपने बनाये श्रावकों को अपने गच्छ के उपासक बनाये रखने को उन नूतन श्रावकों की जातियों को अपने गच्छ के नाम से ओल खाने लगे जिसमें कोरंटगच्छ के आचार्य भो शामिल आजाते हैं ।
कोरंटगच्छ के आचार्यों के लिये मैं ऊपर लिख आया हूं कि पहले पांच नामों से और बाद में तीन नामों से ही उनकी पट्ट परम्परा चली आई थी। जैसे उपदेशगच्छ की परम्परा पाठकों की सुविधा के लिये यहां दोनों गच्छ के आचार्यों की नामावली लिखदी जाती है इसका एक कारण यह भी है कि जैसे उपकेश गच्छाययों का समय लिखा मिलता है वैसे कोरंटगच्छ के सब आचार्यो का समय लिखा हुआ नहीं मिलता है | अतः उपकेश गच्छाचायों की नामावली साथ में दे देने से कोरटगच्छाचार्यों के समय का भी अनुमान लगाया जा सकेगा ।
भगवान् पार्श्वनाथ से ३५ वें पट्ट तक तो दोनों गच्छों के आचायों की पांच-पांच नामों से परम्परा चलती आई बाद में तीन तीन नाम से जिनकी नामावली यह दे दी जाती है ।
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भगवान् पार्श्वनाथ 1 १- गणधर शुभदत्ताचार्य २ - आचार्य हरिदत्तसूरि ३- आचार्य समुद्रसूरि
उपकेशगच्छ कोरंटगच्छाचार्यों की नामावली
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