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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ ___ इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणों से मन्दिर निर्माण के पुण्य फल का स्पष्टीकरण करते हुए उदाहरण दिया कि-जैसे एक मनुष्य कूवा खोदता है। खोदते समय वह मिट्टी कीचड़ आदि जुगुप्सनीय पदार्थों से अवश्य व्याम शरीर वाला होजाता है पर जब कूवे से पानी वगैरह निकल पाता है तब वह मिट्टी, कीचड़ एवं अन्य घृणास्पद वस्तुओं को हटा कर एक दम निर्मल बना देता है । इतना ही नहीं पर कूए को स्थिरता पर्यन्त कूप निर्माता का नाम भी अमर बन जाता है । कूप के जल का आस्वादन करने वाले उसे शुभाशीर्वाद देते हुए अपनी तृषा को शांत करते हैं उसी प्रकार मन्दिर बनवाने में पत्थर, पानी, चूना, मिट्टी वगैरह पदार्थों की जरुरत रहती है और वे पदार्थ भी सब आरम्भ रूप ही दीखते हैं पर मन्दिर के तैय्यार हो जाने पर जब भगवान की प्रतिमा तख्तनशीन होती है तब निर्मल भक्ति एवं पवित्र भावना के पवित्र जल से उक्त सब पातक (जो भविष्य में पुण्य का हेतु ही है ) प्रक्षालन हो जाता है। इसके साथ ही साथ जब तक वह मन्दिर रहता है तब तक जिनालय निर्माता का नाम अमर हो जाता है। हजारों, लाखों भव्य जीव जिन दर्शन पूजा कर अनेक प्रकार से लाभ हासिल करते हैं। मन्दिर बनाने वाले को धन्यवाद देते हैं और मन्दिर बनाने वाला मी अक्षय पुण्य का भागी होता है । देखिये- सम्राट सम्प्रति को हुए कई शताब्दियां बीत गई पर लोग अभी तक उनके बनवाये हुर मन्दिरों की सेवा पूजा कर अपना कल्याण कर रहे हैं। जिनालय निर्माताओं का पवित्र यशोगान करके अपने कण्ठ को पवित्र एवं उनको ख्याति को अमर कर रहे हैं। श्रावक के कुल में जन्म लिया तो अनुकूल सामग्री के सद्भाव होने पर मन्दिर बनवाना, संघ निकालना, भगवती आदि प्रमाविक सूत्रों को महा महोत्सव पूर्वक बंचवाना, आवायाँ का पद महोत्सव करवाना, स्वामी वात पूजाप्रभावनादि जिन धर्म प्रभावक कार्यों को अवश्य ही करना चाहिये । ये श्रावकों के मुख्य कर्त्तव्य एवं धर्म प्रभावना के प्रधान हेतु हैं। चाहे जब जितना मन्दिर एवं तिल जितनी प्रतिमा ही क्यों न करावे पर अपने जीवन काल में मन्दिर बनवा कर दर्शन पद को आराधना एवं सुलभ बोधित्व पुन्य सञ्चय अवश्य ही करना चाहिये इत्यादि। सूरिजी का प्रभावशाली वक्तृत्व श्रवण कर श्रेष्ठिवर्य कदी की इच्छा एक जिन मन्दिर बनवाने की हुई । समय पाकर कदी सूरिजी के पास आया और विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा पूज्यवर ! मेरी मानसिक अभिलाषा है कि मैं जिनालय बनवाने में भाग्यशील बन अपने जीवन को कृतार्थ करूं। सूरिजी ने कहा “जहामुहम' पर धर्म कार्य में विलम्ब या विशेष विचार की आवश्यकता नहीं है। उस समय पाटण में राजा सिद्धराज राज्य करता था। जैनाचार्यों का राजा पर गहरा प्रभाव था। सेठ कदपी बहुमूल्य भेंट लेकर राजा के पास गया और भंट को सम्मुख रखते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। राजा ने कहा-मेठजी ! आपको किस बात की जरूरत है ? सेठ ने कहा-राजन ! परम पूज्य श्राचार्य देव के प्रभाव से मेरी इच्छा मन्दिर बनवाने की हुई है अतः आपश्री से मान्दिर योग्य भूमि की याचना करने के लिये ही मैं आपश्री की सेवा में उपस्थित हुआ हूँ यह सुन राजा के हर्ष की सीमा न रही उन्होंने उत्फुल्ल हृदय से कहा-सेठजी ! इसमें भेंट की क्या आवश्यकता है ? यह तो जैसे आपका कर्तव्य है वैसे मेरा भी कर्तव्य ही है । भला-आप जैसे भाग्यशाली निज के द्रव्य को व्यय कर परमार्थ के लिये मन्दिर बनवाने का अक्षय लाभ प्राप्त कर रहे हैं तो भूमि प्रदान का साधारण लाभ मुझे भी मिलना चाहिये। सेठ-नरेश ! आप परम भाग्यशाली हैं जो इस प्रकार सहानुभूति बतलाकर मेरे उत्साह में वृद्धि कर रहे हैं पर यह भेंट ती केवल मैं मेरे फर्ज को अदा करने के लिये ही नजर कर रहा हूँ न कि, भूमि के मूल्य रूप में। हम गृहस्थ लोगों का यह कर्तव्य है कि देव, गुरु या स्वामी (राजा) के पास जावे तो यथाशक्ति भेट देकर अपना कर्तव्य धर्म पूरा करे। अतः मैंने मेरे कर्तव्य के सिवाय यह कोई विशेष कार्य नहीं किया। इस प्रकार परस्पर सहानुभूति प्रदर्शक श्रेष्ठाचार की बातें बहुत समय तक होती रही। राजा ने भी सेठ कदी की मन्दिर बनाने की भावना . wwwwwwwwwww १४८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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