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________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास विकराल-क्रूरदृष्टि के कारण उपकेशवंश में पारस्परिक मनोमालिन्य एवं क्लेश कदाग्रह ने अपना श्रासन जमा लिया था । गृह क्लेश की इस असामयिक जटिलता के कारण कितने ही आत्मार्थी सजनों ने “संकिलेसकरं ठाणं दूरओ परिवजए" इस शास्त्रीय वाक्यानुसार अपना मूल निवास स्थान एवं गृह का त्याग कर निर्विघ्न स्थान पर अपना निवास स्थायी बना लिया था । वास्तव में जिस स्थान पर रहने से क्लेश कदाग्रह वर्धित हो और निकाचित को बन्धन के कारण अपना उभयतः अहित हो ऐसे स्थान को दर से छोड देना ही भविष्य के लिये हितकर है। अहा वह कैसा पवित्र समय था? जन समाज कर्म बन्धन की ऋटिलता से कितना भीरु एवं धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत था ? इस कर्म बंध से डरकर हजारों लाखों की जायदात का त्याग कर देना, तृणवत् मातृभूमि का निर्मोही के समान मोह छोड़ देना, बड़े २ व्यवसाय वाले लक्षाधीश एवं कोट्याधीशों का हजारों वर्षों के निवास स्थान को त्याग कर अपरिचित क्षेत्र में चले आना-साधारण बात नहीं थी। यह तो उन्हीं महानुभावों से बन सकता है जो पाप भीरु एवं धर्मानुरागी हों । उपकेशपुर का त्याग करने वालों में कोट्याधीश श्रीमान् बसट श्रेष्ठिवर्य भी एक थे। श्राप कौटम्बिक क्लेश से उद्विग्न हो कौराटकूप नगर में जा बसे थे। वैसे ही सुचंति कुल दिवाकर शा० कदी मेठ भी अपने कुल-क्लेश के कारण उपकेशपुर का त्याग कर निकल गये थे। आपने क्रमशः अणहिल्लपुर पट्टन तक पहुंचे जब वहां के साघर्मियों को इस बात की खबर मिली तो उन लोगों ने अपने साधर्मी भाई समझ कर सत्र तरह की सुविधा के लिए आमन्त्रण किया सेठजी ने उन साधर्मियों का सहर्ष उपकार माने और उनके आमन्त्रण को स्वीकार भी किया तत्पश्चात उन स्थानीय साधर्मी भाइयों की सलाह लेकर आप बहुमूल्य भेट के साथ वहां के धर्म प्रेमी नरेश महाराजा सिद्धराज जयसिंह के दरबार में हाजिर होकर भेट अर्पण की इस पर राजा ने प्रसन्न हो सेठजी को अपने श्रागमन का कारण पूछा तो सेठजी ने कहा-राजन् ! मैने आपकी बहुत ही समय से कीर्ति सुनी हे। अतः मेरी इच्छा आपश्री की छत्रछाया में रह कर निर्विघ्न समय यापन करने की है। इस समय मैं सकुटुम्ब आपश्री के सुखप्रद राज्य में रहने के लिये ही पाया हूँ। उस समय के नरेश इस बात को भली भांति जानते थे कि उपकेशवंशी लोग बड़े ही धनाढ्य एवं जबरदस्त व्यापारी होते हैं । व्यापार ही राज्य की आमदनी एवं उत्कर्ष का मुख्य जरिया है। इसीसे राज्य को मान प्रतिष्ठा है। यही कारण था कि राजा ने सेठ कदी का बहुत ही आदर सत्कार किया । मकानादि अनुकूल पदार्थों की सगबड़ कर उन्हें सन्तुष्ट किया बस फिर तो था ही क्या ? सेठ कदी ने उपकेशपुर के समान पाटण को ही अपना निवास स्थान बना लिया। पूर्ववत अपना व्यापार क्रम प्रारम्भ कर दिया। पुन्योदय से सेठ कदी,ने ब्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया। पुण्यानुयोग से आचार्यश्री सिद्धसूरिजी का चातुर्मास पाटण में होगया। सेठ कदी सूरिजी का परम भक्त था अतः वह निरन्तर आचार्यश्री के व्याख्यन-श्रवण का लाम उठाता एवं तन, मन, धन से उनकी सेवा भक्ति करता । एक दिन ब्याख्यान में प्रसङ्गानुसार जिनालय निर्माण का विषय चलपड़ा अतः शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर मन्दिर बनाने के अक्षय पुण्य का वर्णन करते हुए सूरिजी ने फरमाया ___ "काउंपि जिणायणेहिं मंडियं सयल मेइणीवर्से । दाणाइचउक्केणवि सुट्ठोवि गच्छिा अच्चुअयंण परउ गोयम गिहित्ति ।।" अथात्-जिनेश्वर भगवान के मन्दिरों से समस्त पृथ्वी को शोभायमान करके तथा दान श्रादि चार प्रकार धर्म का अच्छी तरह सेवन करके श्रावक बारहवें देवलोक तक जासकता है। हे गौतम! उससे ऊपर नहीं जा सकता है । यह तो उत्कृष्ट विधान है पर एक मन्दिर भी बनावे तो भी दर्शनपद की आराधना होजाती है। १४८४ For Private & Personal Use Only उपकशपुर का सेठ कदी पाटण में Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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