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वि० सं० ४२४-४४० वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
देदी थी और आप सौराष्ट्र एवं लाठ प्रदेश में विहार करते हुए आर्बुदाचल पद्यावती चन्द्रावती होते हुए पाल्हिका नगरी में पधारे वहाँ के श्रीसंघ के अत्यग्रह से सूरिजी ने वह चतुर्मास पाल्हिका नगरी में ही किया आप श्रीजी के विराजने से धर्म की अच्छी उन्नति हुई । चतुर्मास के पश्चात् एक संघ सभा भी की गई थी जिसमें बहुत से साधुसाध्वियों नजदीक एवं दूर से आये परमुनि कुंकुंद नहीं आया जिसका चतुर्मास सोपार पट्टन में जो कि अधिक दूर नहीं था फिर भी सूरिजी ने इस पर अधिक विचार नहीं किया। संघ सभा के अन्दर धर्मप्रचार एवं मुनियों का विहार वगैरह विषय पर उपदेश दिया गया और कई योग्य मुनियों को पदवियों भी दी गई जिसमें मुनि सोमप्रभादि को उपाध्याय पद से विभूषीत किए बाद मुनियों को योग्य क्षेत्रों में विहार की आज्ञा दी और सूरिजी मरूधर प्रान्त में विहार किया और क्रमशः श्राप उपकेशपुर पधारे श्रीसंघ ने आपका अच्छा स्वागत किया । देवी सच्चायिका भी सूरिजी को वन्दन करने को आई सूरिजी ने देवी को धर्मलाभ दिया देवी की एवं वहाँ के श्रीसंघ की बहुत आग्रह से सूरिजी ने वह चतुर्मास उपकेशपुर में करना निश्चित कर दिया इधर तो सूरिजी का चतुर्मास उपकेशपुर में हुआ उधर मुनि कुंकुद एक हजार मुनियों के परिवार से मरूधर में आ रहा था जब वे भिन्नमाल आये तो वहाँ के श्रीसंघ ने अत्याग्रह से विनति की जिससे उन्होंने भिन्नमाल नगर में चतुर्मास कर दिया । कुछ मुनियों को आस पास के क्षेत्रों में चतुर्मास करवा दिया। मुनि कुकुद बड़ा भारी विद्वान एवं धर्मप्रचारक था आपने अनेक स्थानों पर यज्ञ वादियों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी एवं असंख्य प्राणियों को अभयदान दीलाया था इतना ही क्यों पर आप अपनी प्रज्ञा विशेष के कारण लोग प्रिय भी बन गये थे परन्तु कलिकाल की कुटलगति के कारण आपके दिल में ऐसी भावना ने जन्म ले लिया था कि मैं वेदान्तिक मतमै भी आचार्य था अतः यहाँ भी आचार्य बनकर वेदान्तियों को बताता हूँ कि गुणीजन जहाँ जाते है वही उनका सत्कार होता है इत्यादि आपकी भावना दिन व दिन बढ़ती ही गई और इसके लिये आप कई प्रकार के उपाय भी सोचने लगे। खैर मुनि कुकुंद भिन्नमाल में श्रीमालवंशीय शाह देशल के महामहोत्सवपूर्ण श्री भगवतीजी सूत्र व्याख्यान में वाचना प्रारम्भ किया दिया जो उस जमाना में बिना आचार्य की आज्ञा सामनसाधु व्याख्यान में श्री भगवती जी सूत्र नहीं बाच सकता था और श्रावक लोग भी इसके लिये आग्रह नहीं किया करते थे ।
भिन्नमाल और उपकेशपुर के लोगों में आपस का खासा सम्बन्ध था तथा व्यापारादि कारण से बहुत लोगों का आना जाना हुआ ही करता था जब आचार्य श्री ने सुना कि भिन्माल में मुनि ककंद का चतुर्मास है और व्याख्यान में श्री भगवतीजी सूत्र बाच रहा हैं। उस समय आपकों बार्बुदाचल में कही हुई देवियों की बात याद आई । खैर भवितव्पताकों कौन मिटा सकता है।
प्राचार्य श्री व्याख्यान में श्री स्थानायांग जी सूत्र रमा रहे थे जिसके अाठवॉस्थानक में श्राचार्य पद एवं आचार्य महाराज की पाठ सम्प्रदाय का वर्णन आया था जिसको सुनाने के पूर्व प्रसंगोपात सूरिजी ने कहा कि महानुभावों ! आचार्य कोई साधारण पद नहीं है पर एक बड़ा भारी जुम्मावारी का पद है जैसे जनता की जुम्मावारी राजा के शिर पर रहती है इस प्रकार शासन की एवं गच्छ की जुम्मावारी प्राचार्य के जुम्मा रहती है। यही कारण है कि तीर्थक्कर देव एवं गणधर महागज ने फरमाया है कि श्राचार्य पद प्रदान करने के पूर्व उनकी योग्यता देखनी चाहिये जिसके लिये सबसे पहिला
१-जातिवान् । माता का पक्ष निर्दोष एवं निष्कलंक होना चाहिये । ८४०
[उपकेशपुर में सूरिजी भिन्नमाल में कुंकुद
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