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आचार्य यक्षदेव सूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८२४-८४०
___ आचार्य यक्षदेवसूरि की वादियों पर बड़ी भारी धाक जमी हुई थी मथुरा में बोद्धों का बड़ा भारी जोर होने पर भी आचार्यश्री एवं जैनधर्म के सामने वे चू तक भी नहीं करते थे।
जिस समय आचार्यश्री मथुरा में विराजमान थे उस समय काशी की ओर से एक कपालिक नाम का वेदान्तिकाचार्य अपने ५०० शिष्यों के साथ मथरा में आया हुआ था उस समय वेदान्तिकों का जोर बहुत फीका पड़ चुका था तथापि आचार्य कपालिक बड़ा भारी विद्वान् था एवं आडम्बर के साथ आया था अतः वहां के भक्त लोगों ने उनका अच्छा सत्कार किया उन्होंने भी अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए जैन और बोद्ध को हय बतलाया। इस पर बोधों ने तो कुच्छ नहीं कहां पर जैनों से कब सहन होता जिसमें भी प्राचार्य यक्षदेवसूरि का वहां विराजना। जैनों ने आल्हान कर दिया कि आचार्य कपालिक में अपने धर्म की सच्चाई बताने की ताकत हो तो शास्त्रार्थ करने को तैयार होजाय । इसकों वेदान्तियों ने स्वीकार कर लिया और दोनों ओर से शास्त्रार्थ की तैयारी होने लगी। शर्त यह थी कि जिसका पक्ष पराजय होवे विजयिता का धर्म को स्वीकार करले।
ठीक समय पर मध्यस्थ विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ हुश्रा पूर्व पक्ष जैनाचार्य यक्षदेवसूरि ने लिया आपका ध्येय 'अहिंसा परमोधर्म' का था और यज्ञ में जो मुक् प्राणियों की बली दी जाती है ये धर्म नहीं पर एक कूर अधर्म एवं नरक का ही कारण है विदान्तिक आचार्य ने यज्ञ की हिंसा वेद विहित होने से हिंसा नहीं पर अहिंसा ही है इसको सिद्ध करने को बहुत युक्तियें दी पर उनका प्रतिकार इस प्रकार किया गया कि शास्त्रार्थ की विजयमाल जैनों के शुभकण्ठ में ही पहनाई गयी। आचार्य कापालिक जैसा विद्वान् था वैसा ही सत्योपासक भी था आचार्य यक्षदेवसूरि के अकाट्य प्रमाणों ने उनपर इस प्रकार का प्रभाव डाला कि उसकी भद्रात्मा ने पलटा खाकर अहिंसा भगवती के चरणों में शिर मुका दिया और उसने अपने पांचसो शिष्यों के साथ प्राचार्य यशदेवसूरि के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली जिससे जैन धर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई श्राचार्य श्री ने कपालिका को दीक्षा देकर कपालिक का नाम मुनि कुकुंद रख दिया इतना ही क्यों पर उस शास्त्रार्थ के बाद ३२ बौद्ध साधुओं को भी सूरिजी ने दीक्षा दी तत्पश्चात् मथुरा के संघ की ओर से बनाये हुए कई नूतन मन्दिरों की प्रतिष्टा करवाई और भाद्र गौत्रीय शाह सरवण ने पूर्व प्रान्त की यात्रार्थ एक विराट् संघ निकाला सूरिजी एवं आपके मुनिगण जिसमें नूतन दीक्षित ( वेदान्तिक एवं बोध ) सब साधु साथ में थे संघ पहले कलिंग के शत्रुञ्जय गिरनार अवतार की यात्र की बाद बंगाल प्रान्त हेमाचल) की यात्रा करते हुए विहार में राजगृह के पांच पहाड़ पावापुरी चम्पापुरी वगैरह तीर्थों की यात्रा कर बीस तीर्थङ्करों की निर्वाणभूमि श्री सम्मेशिखर तीर्थ के दर्शन स्पर्शन एवं यात्रा की वहां से संघ भगवान् पार्श्वनाथ की करपाणभूमि काशी आया और बनारस तथा आस पास की कल्याणक भूमि की यात्रा की इस यात्राओं से सकल श्रीसंघ को बड़ा ही आनन्द आया और सब ने अपना अहोभाग्य समझा।
सूरिजी हस्तनापुर होते हुए पंजाब में पार गये शेष साधु वापिस संघ के साथ मथुरा आये । सूरिजी पंजाब सिन्ध और कच्छ होते हुए सौराष्ट्र में आकर श्री शत्रुजय की यात्रा की इस विहार के अन्दर मुनि कुंकुंद जैनागमों का अध्यायपन कर धूरंधर विज्ञान हो गया था इतना ही क्यों पर पंजावादि प्रदेशों में अपने अहिंसा धर्म का खूब प्रचार भी किया था इस विषय में तो आपकी खूब ही गति थी कारण आपके दोनूघर देखे हुए थे । सूरिजी महाराज ने मुनि कुंकुंदकों '५०० साधुओं के साथ कंकणादि प्रदेश में विहार की आज्ञा मथुरा में वेदान्तिक कपालक की दीक्षा ]
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