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वि० सं० ७७८ से ८३७ )
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सूरिजी के बचन सुनकर देवी ने संतुष्ट होकर प्रार्थना क-प्रभों मुझे कुछ अाज्ञाफरमाकर कृतार्थ कीजिये । सूरिने कहा- हम निस्पृहियों से क्या कार्य हो सकता है ? सूरिजी की इस अनुपम निस्पृहता से प्रसन्न हो देवी ने चिन्तितकार्य को पूर्ण करनेवाली गुटिका देते हुए कहा-भों ! इसको मुंह में रखने से दृष्टि अगोचर; आकाश गमन, रूपान्तर, कविता की लब्धि, विषाय हरण, और अपनी इच्छानुसार लघुता गुरुता को प्राप्त होके रूप गुणों की प्राप्ति होती है । मुंह से निकाल देने पर पुनः उसी रूप में मनुष्य हो जाता है । गुरु की इच्छा न होने पर भी देवी उनको अर्पण करके चली गई। सूरिजी ने गुटिका को मुंह में रख कर सबसे पहिले
"नेमिः समाहितधियो"
इत्यादि अमर वाक्ये से भ० नेमिनाथ की स्तवना की। बाद में वहां से रवाना हो आप भृगुपुर पधारे। श्रीसंघ ने आपका स्वागतमहोत्सव किया ।
एक समय अंकुलेश्वर नगर में जलता हुआ वांस भगुपुर में उड़ता हुआ श्राया जिससे एक मुनि सुव्रत के बिम्ब के सिवाय तमाम मूर्तियां, चैत्य और नगर जलकर भस्म होगये तब सूरिजी ने मुंह में गुटिका डाल कर पांच सहस्त्र दीनारे एकत्रित की और पुःन चैत्यों का उद्धार कर वाया। इस प्रकार विजयसिंहसूरिने उस देवदत्त गुटका के महाप्रभाव से जैनशासन के अनेक प्रभाविक कार्य कर के जैनधर्म की महान प्रभावना की अतः जैनधर्म के महान प्रभाविक आचार्यों में श्रापश्री की गणना की जा सकती है और ऐसे ऐसे महाप्रभाविक श्राचार्यों से ही जैन शासन जयवंता वर्त रहा है-। अन्त में अनसन समाधि एवं पञ्च परमेष्टि के स्मरण पूर्वक आप स्वर्ग पधार गये । प्रबन्धकार लिखते हैं कि आपश्री के वंश रूप सरोवर में प्रभावक आचार्य रूप कमल अद्यावधि विद्यमान हैं।
प्राचार्य कीरसूरि इतिहास प्रसिद्ध श्रीमाल नामके नगर में परमार वंशीय धूम्रराजा की वंश परम्परा में देवराज नामका विख्यात राजा राज्य करता था। उसी नगर में शिवनाग नाम का एक धन वेश्रमण श्रेष्टी रहता था। उसने श्रीधरणेन्द्र नाम के नाग की आराधना की जिससे सन्तुष्ट हो देव ने उसको एक मन्त्र अर्पण किया जो सर्व कार्य की सिद्धि करने वाला था। शिवनाग के पूर्णलता नाम की स्त्री थी जो गृह कार्य कुराला, सर्व कला कोविदा थी। शिवनाग के वीर नाम का एक बड़ा ही भव्य होनहार एवं तेजस्वी पुत्र था। उसके मनमोहक रूप लावण्य एवं गुणों की राशि से मुग्ध हो सात श्रेष्टियों ने अपनी कन्याओं का विवाह वीर के साथ कर दिया। श्रेष्टी पर लक्ष्मी की पूर्ण कृपा थी। उसके मकान पर कोट्याधीश की निशानी रूप ध्वजाएं फरक रही थी।
वीर के पिता की मृत्यु के पश्चात् बीर ने सत्यपुर जाकर पर्व दिनों में श्रीमहावीर प्रभु की यात्रा करने की प्रतिज्ञा की थी। इस बात को कई अर्सा व्यतीत हो गया। एक दिन वीर सत्यपुर जाकर वापिस पारहा था कि मार्ग में उसको चोर मिले । उस समय उसके साथ उसका साला भी था । वह जल्दी ही चोरों से बच*सा निःस्पृहत्व तुरटा. विशेषतस्तानु वाच बहुमानात् । गुटिकां गृहीतविभो ! चिन्तित कार्यस्व सिद्धिकरीम् ॥११५॥
चक्षुरदृश्यो गगने चरश्च रूपान्तराणि कर्ताच । कविता लब्धि प्रकटो विषहृद् वद्धस्य मोक्षकर : ॥१६॥
भवति जनो लगुरुधुता प्रपद्यते स्वेच्छया तथावश्यम् । भनया मुखे निहितया विकृष्टया तदनु सहज तनुः ॥११॥ ११९८
आचार्य वीर सूरि का चसत्कार
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