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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७-१२३७ कर श्रीमाल नगर चला आया। जब वीर की माता ने वीर का वृत्तान्त पूछा तो साले ने कहा-वीर नाम धराने वाले तुम्हारे वीर को चोरों ने मार डाला है । बस, इतना सुनतेही पुत्र वियोग से दुःखी हो माता ने तत्काल प्राण छोड़ दिये बाद में वीर घर पर आया पर अपनी माता की मृत्यु देख उसको वैराग्य पैदा हो गया। एक एक कोटि द्रव्य एक एक स्त्री को देकर अवशिष्ट द्रव्य शुभ क्षेत्र में लगा श्राप निस्पृहीकी भांति सत्यपुरमें जाकर बीर भगवान की भक्ति में सलंग्न हो गये । वहां श्राठ उपवास किये व चार प्रकार के पोषधका प्रामुक भोजन करने लगे। रात्री के समय तो स्मशान में जाकर के ध्यान संलग्न करने में होने लगे। एक दिन सायंकाल के समय वीर, नगर से बाहिर जारहा था कि जंगगकल्पतरू मुनि श्रीविमलगणि से उनकी भेंट हो गई । मुनि वयं श्रीविमलगणि, शत्रुञ्जय जाने के लिये वहां आये थे। वीर ने मुनिराज को सम्मुख देख विनय पूर्वक वंदन किया तब गणिजी ने कहा-महानुभाव ! मैं तुमको अंगविद्या देने की उरण्ठा से ही यहां आया हूँ । गणिजी के उक्त वचनों को सुनकर वीर ने अपना अहोभाग्य समझा और वह गणिजी को अपने उपाश्रय मे ले गया व रातभर उनकी सेवा की। गणिजी ने वीर को दीक्षा देकर तीन दिन अङ्ग की विद्या आम्नाय सिखलाई और कहा थागपद्रनगर के ऋषभप्रसाद में अंगविद्या प्रन्थ है जिसको तू धारण करके सपरात्मा का कल्याण करना । उतना कह वह विमलगणिजी ने शत्रुजय की और पदार्पण किया व कुछ दिनों के पश्चात् अनशन पूर्वक समाधि के साथ स्वर्ग के अतिथि हो गये। मुनि वीर गुर्वादेशानुसार थारा. पद्रनगर में गया और प्रन्थ को प्राप्त कर अंगविद्या का अध्ययन किया । पश्चात् तप तपने में शूरवीर मुनिवीर ने पाटण की और विहार किया । मार्गमें थीगग्राम के वल्लभीनाथ नाम व्यंतर के वहां आप ठहरे । रात्रि के समय व्यंतरने विकराल हस्ति एवं कर सर्पादि के रूप कर मुनिवीर को उपसर्ग किया पर वीर तो वीर ही थे। वे मेरु की भांति सर्वथा अकम्प रहे। इससे सन्तुष्ट होकर मुनिवीर को व्यन्तर ने नमस्कार किया और कहा-आप को कुछ चाहें मेरे से मांग सकते हैं ! मुनिवीर ने जीव रक्षा के लिये कहा जिसको व्यंतर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस समय पाटण में चामुण्ड राजा राज्य करता था। व्यन्तर ने गजा को बुला कर जीव दया के लिये कहा जिस को राजा ने सहर्ष स्वीकार कर वैसा करने का वचन दे दिया । बाद में मुनि वीर अगाहिल्लपाटण पधारे वहां बहुत से भव्योंको उपदेश देकर उनका उद्धार किया । पाटण में श्रीवर्द्धमानसूरि बिराजमान थे। उन्होंने वीरमुनि की योग्यता देख उनको आचार्य पद प्रेदान किया। इसके पश्चात् वल्लभीनाथ व्यन्तर प्रत्यक्ष बैठकर वीर सूरि का व्याख्यान सुनने लगा पर उसकी क्रीड़ामय प्रवृत्ति रुक न सकी। अपनी स्वाभाविक आदत के अनुसार वह मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर क्रीड़ा करने लगा जिससे जन समुदाय में वैचेनी फैलगई । वीरसूरि ने व्यन्तरको उपदेश देकर उसको इस कार्य से रोका और लोगों को सुखी बनाया' 8 उक्स्वेति कंटिमेंरेका कलत्रेभ्याः प्रदाय सः। गस्वा सत्यपुरे श्रीमद्वीर माराधयन्मुदा ॥ २९॥ चारित्रमिय मूर्तिस्थं मथुराया समागतम् । स वर्षः तदेशीयमपश्यद विमलं गणिम् ॥ ३४ ॥ गणिः प्राहातिथिस्तेऽहम विद्योपदेशत: मिलित्वा ते स्वकालाय यामि शनब्जये गिरौ॥ ३८ ॥ तदार्थ ज्ञापयिष्यामि शीघ्र तत्पुस्तकं पुनः । थारापदपुरे श्रीमान्नाभेयस्य जिनेशितुः ॥ ४५ ॥ चैत्यस्यशुकनासेऽस्तितं गृहीत्वा च वाचयेः । इत्युक्त्वाऽदात् परिवज्यां गुरुवरस्य सादरम् ॥ ४६ ॥ विमल गणी की अंग विद्या ११९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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