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________________ वि० सं० ७७८-८३७ ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास एक दिन वीरसूरि ने व्यन्तर से पूछा क्या अष्टापद तीर्थ जाने की तुम्हारी शक्ति है ? व्यन्तन ने कहा- हाँ, अष्टापद जाने की तो मेरी शक्ति है पर वहां के व्यतरों के तप तेज के सम्मुख मैं ज्यादा ठहर नहीं सकता हूँ । यदि मैं आपको श्रष्टापद ले जाऊं तों आप एक प्रहर से अधिक वहां ठहर नहीं सकेंगे। अगर आप अधिक ठहर गये और मैं वहां से लौट आया तो आप वापिस नहीं सकेंगे । वीरसूरि ने व्यन्तर का कहना स्वीकार कर लिया तब व्यन्तर ने एक धवल वृषभ का रूप बना कर वीर सूरि को अपनी पीठ पर बिठाया | वीरसूरि ने अपना मस्तक वस्त्र से अच्छादित कर लिया, पश्चात् वृपभ आकाश में गमन करता हुआ क्षणभर में अष्टापद तीर्थ पर पहुँच गया । चैत्य के द्वार के पास मुनि को नीचे उतार दिया पर वहां के देवों के चमत्कार को सहन नहीं करने वाले वीर सूरि एक पुत्तलिका के पीछे छिप कर बैठ गये । तीन ठाऊं ऊंचे और एक योजन विस्तीर्ण भरतचक्रवर्ती से करवाये हुए मनोहर चारद्वार एवं वर्ण, अवगाहना युक्त वन चैत्यों में वीरसूरि ने नमस्कार स्तुति कर सब प्रतिमाओं को भाव से प्रणाम किया और बाद में शासन की प्रभावना बढ़ाने के उद्देश्य से देवताओं के द्वारा चढ़ाये हुए पांच सात चावल ले लिये और वृषभ की पीठ पर बैठ कर वापिस चले आये। इन सुगन्धमय चांवलों से सूरिजी का उपाश्रय सुगन्धमय हो गया । वह ऐसा मालूम होने लगा जैसे स्वर्ग भवन हो । रात्रि के प्रथम प्रहर में यात्रार्थ गये हुए सूरिजी दूसरे प्रहर की घड़ी रात्रि व्यतीत होने पर वापिस स्वस्थान पर लौट आये । जब उपाश्रय अनुपम सुरभि से सुरभित होगया तो प्रातःकाल शिष्यों ने इसका कारण पूछा । आचार्यश्री ने यात्रा का सब हाल यथावत् कह दिया । क्रमशः फैलते २ यह बात संघ को मालूम हुई और संघ के द्वारा राजा को । इस आश्चर्यकारी घटना को सुन कर राजा ध के साथ सूरिजी के पास श्राया और यात्रा का हाल पूछने लगा । इस पर आचार्यश्री ने कहा बेधला वे सामला बेरतुप्पल वन्न | मरगयवन्ना दुन्नि जिय सोलस कंचन वण्ण ॥ १ ॥ नियनियमाणिहिंकारविय, भरहि जि नयणाणंद | तेमइ भावीहिं वंदिया एचवीस जिणंद || २ || अर्थात् - दो श्वेत, दो श्याम, दो हरे, दो लाल और सौलह स्वर्णमय वर्णवाले अपने २ वर्ण प्रमाण वाले चौबीस तीर्थंकरों को मैंने भाव युक्त वंदन किया है। राजा ने कहा- ये तो आपके इष्ट देव हैं अतः आप इनका सब वृत्तान्त कह सकते हो पर जन १२०० के उद्याच प्रभुरानन्दात् तवसामर्थ्य मस्ति, किम्, अष्टापद चले गन्तुं श्री जैन मनोन्नते ॥ ११४॥ स देवः प्राह शाक्तिर्नो गन्तु नावस्थितौ पुनः, तत्र सन्ति यतः सुरे । व्यन्तेरन्द्रा महाबलाः ॥ ११५ ॥ अवस्थातुं न शक्नोमि तत्तेजः सोदुमक्षमः । याममेकं स्ववस्थास्ये चल चेत् कोतुकं तब ॥ ११६ ॥ X X x X X राजाह स्वेष्ट देवानां स्वरूप कथने वा । नास्ति प्रतितिरस्माक मन्यात् किमपि कथ्यताम् ॥ १३१ ॥ अक्षतान् दर्शयामास निः सामान्य गुणोदयान् । वर्णैः सौरभ विस्तरैर पूर्वान् मानव ब्रजे ॥ १३२ ॥ ते द्वादशागु लायामा अंगुलं विण्ड विस्तरे । अवेष्टयंन्त सुवर्णेन महीपालेन ते ततः ॥१३३॥ पूर्व तुरुष्क भंगस्य तेऽभुवंस्तदुपाश्रये अपूज्यन्त च सङ्घेनष्टापद प्रतिबिंबवत् ॥ १३४ ॥ एवं चातिशयैः सम्यक् सामान्य जन दुस्तरैः । श्रीमान् वीरगणि. सूरिर्विश्व पूज्यस्तदाऽभवत् ॥ १३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य वीरसूरि की अष्टापद यात्रा www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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