SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ हुए देवी दर्शना की एक बिद्यादेवी के साथ मित्रता हो गई । पूर्व भव का स्मरण कर वह जिनेन्द्रदेव की पुष्पादि से पूजा करने लगों । उसी नगर में उसकी अठारह सखियां मर कर देवियां हुई अतः सबके साथ महाविदेह जिन एवं नंदीश्वर द्वीप में जिन-प्रतिमा की भावपूर्वक पूजा कर अपने देव भव को सफल बनाने लगी। एक दिन वह देवी भगवान महावीर को वंदन करने आई और भक्तिपूर्ण कई प्रकार का नाटक किये बाद में गणधर सौधर्म ने देवी का पूर्वभव पूछा और भगवान् सम्पूर्ण पूर्व भव कह सुनाया। विशेष में प्रनु ने कहा यह देवी तीसरे भव मोक्ष को प्राप्त करेगी । यह भरोंच नगर जो सकुशल रहा है वह, इस देवी की कृपा से ही रहा है। देवी प्रतिदिन जिन पूजा के लिये तमाम सुगन्धित पुष्य ले आती थी इससे अन्य लोगोंको देवार्चना के लिये पुष्प नहीं मिलता था तब श्रीसंध ने श्रार्य सुहस्तिसूरिके शिष्य कालहससूरि से विज्ञप्ति कर इसका समाधान करवाया। बाद में सम्राट सम्प्रति ने इसका जीर्णोद्धार करवाया उसमें उपद्रव करने वाले व्यन्तर को गुणसुन्दर सूरिके शिष्य काल काचार्य ने रोका । वादमें सिद्धसेन दिवाकर के उपदेश से राजा विक्रम ने भी इसका पुनरुद्धार करवाया। वीरात् ४८४ वर्ष में आर्य खपटसूरि ने व्यंतरों तथा बौद्धों से इस तीर्थ की रक्षा की। वीरात् ८४५ वर्ष में तुर्कों ने वल्लभी का भंग किया बाद में वे भरोंच श्राने लगे तो देवी ने उनको रोका। बाद में ८८४ वर्ष में मल्लवादी ने भी बौद्धों एवं व्यन्तरों से इस तीर्थ की रक्षा की। आपके उपदेश से सत्यवाहन राजने इस तीर्थ की रक्षा की और पादलिप्त सूरिने ध्वजाप्रतिष्ठा की। आर्य खपटसरि के वंश में ही प्रस्तुत प्राचार्य विजयसिंहसूरी हुए जो यमनियमादि उत्तम गुणों से स्वपर आत्मा के कल्याण करने में समर्थ हुए। आचार्य विजयसिंहसूरि ने शत्रुजय गिरनार को यात्रार्थ सौराष्ट्र में विहार किया और धीरे २ गिरनार पर चढ़े वहां तीर्थ रक्षिका अम्बा नाम की देवी थी प्रसङ्गोपात उसका चरित्र यहां लिखा जाता है ? कणाद् मुनि स्थापित कासहृद नाम के नगर में सर्वदेव नाम का एक ब्राह्मम था। सत्य देवी नाम की उसकी पत्नी थी। अम्बादेवी नामक इनके आत्मजा थी युवावस्था के प्राप्त होने पर सोमभट्ट नामक कोटि नगरी निवासी ब्राह्मण के साथ उसका लग्न हुआ था। कालन्तर में इनके विभाकर शुभंकर नाम के दो पुत्र हुए। एक समय भगवान् नेमिनाथ के शिष्य सौधर्मसूरिके आज्ञानुयायी दो मुनि अम्बादेवी के घर पर भिक्षा के लिये आये । अम्बादेवी ने उनको शुद्ध श्राहार पानी प्रदान कर लाभ लिग । यह बात जब सोमभट्ट के कान पर आई तो उसने अम्बादेवी के साथ खूब मारपीट की बस, वह अपने दोनों बच्चों को लेकर गिरनार पर आई और नेमिनाथ को वन्दन कर झपापात कर के मरगई । मरकर वह अम्बिका नाम की देवी होगई । इधर उसके पति का क्रोध शान्त होने पर उसको अपने किये हुए अकृत्वपर बहुत ही पश्चाताप होने लगा बस, वह भी चल कर गिरनार आया और भगवान् नेमिनाथ को वंदन कर एक कुण्ड में मम्पापात करके मर गया। वह अम्बिका देवी की सवारी में सिंह देव पने उत्पन्न हुआ। बिजयसिंह सूरि तीर्थ यात्रा कर प्रभु के ध्यान में संलग्न हो गये। रात्रि में अम्बिका देबी गुरु को वंदन करने आई । गुमने कहा-- तू पूर्व भव में विप्र-पत्नी थी तेरे पति के द्वारा पराभव को प्राप्त हुई तू मर करके देवी हुई और तेरे पति की भी यही दशा हुई है वह मर कर तेरी सवारी के लिये सिंह देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। राजपुत्री सुदर्शन की यात्रा ११९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy