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________________ वि० सं० ७७८-८३७) [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वैतादय पर्वत पर एक रथनुपुर चक्रवाल नामके नगर में विजयरथ नाम का राजा राज्य करता था। विजयमाला नाम की उनके रानी थी । विजया नाम की उनके एक पुत्र थी । वह तीर्थों का वंदन करने चली इतने में आगे उतरता हुआ एक सांप उसके देखने में आया इसके साथ में आने वाला पैदल वर्ग अपशकुन समझ कर उसको मारने लगे। अज्ञानता से इस जीव के वध को नहीं रोकती हुई विजया ने भी इसकी उपेक्षा की। पीछे शान्तिनाथ तीर्थ में जाकर उसने भाव से भगवान को वंदन किया। उसी आयतन में एक परम निष्ठ चारित्र वाली विद्या चारण साध्वीजी को वंदन करके विजया सर्प वध की उपेक्षा का पश्चाताप करने लगी। इससे उसने थोड़े कर्म पुद्गलो का क्षय किया। अन्त में वह अपने गृह एवं धन के मोहसे आर्तध्यान करती हुई मृत्यु की प्राप्त हो शकुनि के रूप में पैदा हुई और वह सर्प मृत्यू को प्राप्त होकर शिकरी हुआ। ___ एकदा भाद्रपद में बहुत दिनों तक वरसाद हुई बाद वह शकुनि ( पक्षिणी ) क्षुधातुर हो अपने . सात बच्चों व स्वयं के लिये खाद्य सामग्री का शोधन करती हुई उस शिकारी के घर गई। वहां से उसने एक मांस का टुकड़ा अपनी चोंच से उठाया । पश्चात् उड़कर आकाश में जाती हुई उसको शिकार ने तीक्ष्ण बाण छोड़ कर घायल किया। इससे वह श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के चैत्य के सम्मुख गिर पड़ी लगभग मरने के छोर पर वह आगई । इतने में पुण्य योग से भानु और भूषण नाम के दो साधु वहां आ गये । उन्होंने दया लाकर जल सिन्चन से उसको आश्वासन दिया और पञ्च परमेष्ठी रूप महा मंत्र सुनाया । इस तरह तीर्थ के ध्यान में लीन हुई शकुनि दो प्रहर में मृत्यु को प्राप्त हुई । ___सागर के किनारे पर दक्षिण खंड में सिंहल नामक द्वीप था । वहां कामदेव के समान रूपवान चन्द्र शेखर नाम का राजा राज्य करता था। रूप में रति के समान चंद्रकांता नामक उसके रानी थी। शकुनि मर कर चंद्रकांता रानी की कुक्षि से सुदर्शना नाम की पुत्री हुई। एक दिन मृगुपुर से वाहन लेकर जिनदास नाम का सार्थवाह वहां आया। उसने रत्नादि अमूल्य भेट राजा को अर्पण की । उसमें से सहज ही में चूर्ण उड़ा वह समीपस्थ वाणिक के नाक में गया और उसे स्वा भाविक छीक आगई । तत्काल ही उसने महाप्रभावक पञ्जपरमेष्ठी मन्त्र का उच्चारण किया जिसको सुनकर राजपुत्री को मूर्छा आगई और उसको तत्क्षण पूर्व जन्म का स्मरण होगया । राजा के द्वारा पूछने पर उसने अपने पूर्वभव का वृत्तान्त पिता को कह सुनाया। तदनन्तर तीर्थ वंदन के लिये उत्कंठित हुई राजपुत्री ने अत्याग्रह से पिता की अनुज्ञामांगी पर राजा ने उसको जाने की अनुमति नहीं प्रदान की । इससे उसने अनशन करने की प्रतिज्ञा ले लो । बस. अन्योपाय न होने से अतिवल्लभ होने पर भी अपनी पुत्री को राजा ने जिनदास सार्थवाह के साथ जाने की आज्ञा दे दी । अठारह सखियां, सोलह हजार पैदल सिपाही, मणि, कांच रजत, मोतियों से भरे हुए अठारह वाहन, आठ कंचूकी तथा आठ अंगरक्षकों के परिवार को साथ देकर उसको बिदा किया। उपवास करते हुए जिनदास के साथ वह राज सुता एकमास में उसतीर्थ स्थान पर आई। वहां मुनिसुव्रतस्वामी को वंदन करके महोत्सव किया। तदन्तर अपने उपकारी भानु और भूषण मुनियों को वंदन करके कृतज्ञता के साथ अपने साथ लाया हुआ सब धन उनके सामने रख दिया। निःसंगपने से और भव विरक्त पने से इसका इन्होंने निषेध किया तब कनक और रत्नों के बल से उसने उसजीर्ण तीर्थ का उद्धार किया। तब ही से वह तीर्थ शकुनिका-विहार नाम से प्रसिद्ध हुआ पश्चात् बारह वर्ष तक दुष्कर तप का आचारण कर समाधि पूर्वक अनशन व्रत के साथ काल कर दर्शना नाम की देवी हुई । एक लक्ष देवियों के साथ रहते जिज्ञदास व्यापारी की मेट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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