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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १४३३-१४७४
बुलवाया है। अतः शीघ्र ही देवी के निर्दिष्ट स्थान पर चलो। उस ग्राम के भद्रिक पुरुषों ने देवी प्रोक्त वचनों को ग्राम स्थित सुनियों को वंदन कर कह सुनाये । उपाध्यायजी म. ने भी वाचक पद्मप्रभ को देवी के पास भेज दिया । जब वाचकजी विसोई देवी के स्थान पर गये तो देवी ने कहा-“हे भाग्यशाली ! मैं त्रिपुरा देवी को नमन करने गई थी। उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारे वहां पद्मप्रभ नामक श्वे० साधु आवेगा उसको मेरी ओर से कह देना कि तुमने तीन भव तक मेरी आराधना की पर स्वल्प आयुष्य होने के कारण मैं सिद्ध न हो सकी । अब तुम हमारी आराधना करो मैं तुम्हारे लिये वरदाई (सिद्ध) हो जाऊंगी।" ऐसा कह कर त्रिपुरादेवी ने मुझे विसर्जित की और मैं आपको सूचना देने के लिये यहां आई । आपको देवी कथित सकल वृतान्त कह दिया अब आप इस बात को नहीं भूलें । आप त्रिपुरादेवी का स्मरण कीजिये कि आपको पूर्व साधित मन्त्र भी स्मृति रूप हो जाय। वाचक पद्मप्रभ ने देवी विसोई की बात को सुनकर त्रिपुरादेवी का ध्यान लगा लिया। बस देवी के प्रभाव से पूर्व जन्म पठित देवी साधक मन्त्र की ताजा स्मृति हो आई। मन्त्र-स्मरण के साथ ही वाचकजी अपने गुरु उपाध्यायजी के पास आये और उन्हें विनय पूर्वक सब हाल सुना दिया । उपाध्यायजी को देवी की अनुपम कृपा के लिये अत्यन्त प्रसन्नता हुई और ऐसा होना सम्भव भी था । अपने या अपने शिष्य के अनुपमेय उत्कर्ष में किसी को अपसिमित आनन्द का अनुभव न हो ?
अब उपाध्यायजी की यह इच्छा हुई कि किसी योग्य प्रदेश में जाकर देवी के कथनानुसार वाचकजी को मन्त्र साधन की अनुष्ठान क्रिया करवाई जाय । इस उच्चतम विचारधारा से प्रेरित हो वे सपादलक्ष प्रान्त में परिभ्रमन करते हुए नागपुर शहर में पधारे । उन वाक् संयम श्रेष्ठ मुनि ने नागोर में पदार्पण कर वहां के नागरिक-श्रावकों को अनुष्ठान के लिये कहा परन्तु भवितव्य के कारण उन्होंने शिर धून दिया कारण उनके तक़दीर ही इस काम के योग्य नहीं थे। अनन्तर वे गुरु शिष्य सिन्ध प्रान्तान्तर्गत डंभरेल्लपर नगर में पधारे। वहां गच्छ में पूर्ण भक्ति रखने वाला यशोदित्य नामका श्रेष्टि भक्त श्रावक रहता था। उसी डंभरेल्लपुर में हमेशा प्रातःकाल उठकर सवा करोड़ स्वर्ण मुद्रा का दान करने वाला सुहड़ नामका राजा राज्य करता था।
श्री उपाध्यायजी म० के वहां पधार जाने पर गुरु आगमन के महोत्सव में मंत्रीय-शोदित्य ने डंभरेल्लपुर नरेश को भी आमन्त्रित किया । भक्ति परायण वह राजा भी मन्त्री की प्रार्थना को मान दे सपरिवार पुर प्रवेश महोत्सव में सम्मिलित हआ।
समय पाकर वाचक पद्मप्रभ मुनि ने अपनी अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न विद्वत्ता द्वारा राजा और प्रजा की सभा में मधुर एवं हृदय ग्राही छोजस्त्री गिरा में व्याख्यान दिया । अश्रुतपूर्व मनोमुग्धकारी व्याख्यान को श्रवण कर प्रसन्नता के मारे राजा ? विनयपूर्वक अर्ज करने लगा-स्वामिन ! मेरे द्वारा समर्पित किये हुए ३२००० द्रम्म ( उस समय का प्रचलित सिक्का विशेष ) ३२००० घोड़े व ३२००० ऊँटनिये आप स्वीकृत करें। यह सुन गुरु महाराज ने उत्तर दिया-राजन् ! परम निस्पृह, परिग्रह को नहीं रखने वाले, म हे कार्यों का आचरण करने वाले, परोपकार धर्म निरत, मधुकरी पर जीवन निर्वाह करने वाले हम भिक्षुकों को इस लौकिक द्रव्य से क्या प्रयोजन है ? हमें तो ऐसे धन की किञ्चित भी दरकार नहीं । इस पर राजा ने कहामेरा किया हुआ दान अन्यथा नहीं हो सकता-किये हुए दान को मैं अपने पास नहीं रखना चाहता हूँ। यह सुन समीपस्थ सेठ यशोदित्य बोले-राजन् ! इन द्रम्मों को तो किसी धर्म कार्य में भी लगाया जा सकता है पर इन अश्व एवं ऊंटों का क्या किया जा सकता है ? इसके प्रत्युत्तर में राजा ने घोड़ों और ऊंटनियों की संख्याक्रम के अनुसार ६४०००) हजार द्रम्म (सिके) मूल्य स्वरूप लेलो यह सेठ को कहा । सेठ ने भी राजा को प्रसन्न रखने के लिये ६४ हजार द्रम्म ग्रहण कर सामरोदी नामकी नगरी में श्री उपाध्यायजी महाराज से प्रतिष्ठित एक भव्य जिनालय बनवाया।
तदन्तर वाचक पद्मप्रभ ने यशोदित्य की सहायता से पाश्चाल (पञ्जाब) प्रान्त में जाकर त्रिपुरादेवी विसनोई देवी द्वारा त्रिपुरादेवी का संदेश
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