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________________ वि० सं० ११०८-११२८] [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास MarwAAAAAAmrunam भाग्यशाली था पद्मा शाह ला चोखा पर अत्यन्त अनुराग था। पितृ भक्त चोखा भी अपने पिताश्री को हरएक कार्य में सहयोग प्रदान कर उनकी हर तरह से सेवा किया करता था। जब चोखा की वय क्रमशः बीस वर्ष की हुई तो उस ३५० के भाद्र गौत्रीय समदाड़ेया शाखा के शाह गोसल की सुपुत्री, सर्व कलाको विदा रूपगुण सम्पन्ना रोली' के साथ सम्बन्ध (सगपण) हो गया था अब तो वय की अनुकूलता के कारण विवाह की भी समारोह पूर्वक तैय्यारियाँ होने लगी। इधर परम प्रभावक, शासन उद्योतक आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराजने भी अपने शिष्य समुदाय के साथ डामरेलपुर की ओर पदार्पण किया। जब ये शुभ समाचार वहां के श्रीसंघ को मिले तो उनकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। उन्होंने बड़े ही समारोह पूर्वक सरिजी के नगर प्रवेश का महोत्सव किया। सरिजी ने भी स्वागतार्थ आगत जन मण्डली को धर्मोपदेश देकर उन्हें कृत्तकृत्य किया जिससे उपस्थित जन-समुदाय पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ा । व्याख्यान क्रम तो आचार्य देव का नित्य नियम की भांति सर्वदा प्रारम्भ ही था। प्रसङ्गोपात एक दिन के व्याख्यान में नरक निगोदों का वर्णन चल पड़ा। उनके दुःखों का वर्णन करते हुए नारकीय जीवन का शान वर्णित ऐसा वास्तविक चित्र खेंचा कि श्रोता वर्ग एक दम वैराग्य की अपूर्व धारा में बहने लगे। संसार भय से उद्विग्न मनुष्यों का हृदय व्याख्यान श्रवण से भयभीत एवं कम्पित होने लग गया । वे लोग भविष्य कालीन इस प्रकार के दुःखों से विमुक्त होने के लिहे प्रयत्न करने लगे। संविग्न जन मण्डली को एक क्षण भी संसार में रहना अच्छा नहीं लगने लगा। __ पुण्यानुयोग मे उस दिन शाह पद्मा का सारा कुटुम्ब भी व्याख्यान में उपस्थित था । परम श्रद्धालु, धर्म प्रेमी पन्नात्मज चोखा ने भी आचार्यश्री का व्याख्यान बहुत ध्यान लगाकर सुना था। उसके हृदय में तो सूरिजी के शास्त्रीय वर्णन से आत्म-कल्याण की उत्कट भावनाएं जागृत होगई । वह रह रह कर सोचने लगा कि इस जीव ने पुराकृत पापपुञ्ज के आधिक्य से अनन्तबार नरक निगोद के असह्य दुःखों को भी सहन किया है । वर्तमान समय में एतत् सम्बन्धी दुःख राशि से विमुक्त होने के लिये हमें सब साधन भी यथावत् उपलब्ध हैं। केवल विषय कषाय की प्रबलता के कारण ही इसका दुरुपयोग किया जारहा है । अरे ! नरक निगोद के असह्य दुःखों से स्वतंत्र होने के लिये तो हमें यह स्वर्णोपम समय मिला है और उसमें भी यदि दुःखों की वृद्धि के ही विषम कार्य किये जाँय तो दुःख से मुक्त होने के सफल उपाय ही क्या हैं ? प्राचार्य देव का कथन तो सर्वथा सत्य है कि दुःखों से विमुक्त होने की इच्छा रखने वाले भव्यों को दुःख मय असार संसार का त्याग कर दीक्षा स्वीकृत करलेनी चाहिये । बस, कुमार चोक्खा की भावना सूरिजी के पास दीक्षा लेने की होगई व्याख्यान समाप्त्यनंतर वह तत्काल ही अपने घर गया और अपने माता पिता से कहने लगा कि यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो मैं दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूँ। प्यारे पुत्र के संसार से विरक्त दुःखोत्पादक वचनों को सुनकर माता भोली को मूर्छितावस्था प्राप्त होगई । जब जलवायु के उपचार से उसे सारधान किया गया तो वह नैत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित करने लगी। वह रोती हुई ही बोली-बेटा । तेरा यह शब्द मुझे शूलवत् हृदय विदारक मालूम होता है । यदि तू मुझे जीवित अवस्था में ही देखना चाहता है तो भूल चूक करके भी अब से ऐसे शब्द मत निकालना । शाह पद्मा ने कहा बेटा! यह तो तुम्हें अच्छी तरह से मालूम है कि तुम्हारी सगाई कब से ही करदी गई है। दो मास के पश्चात् तो तेरी शादी का शुभ मुहूर्त है अतः लोगों में व्यर्थ ही में हंसी हो, ऐसे अप्रासङ्गिक शब्दों को निकालना तुझे उचित नहीं है । बेटा ! तेरी मांग (जिसके साथ वाग्दान-सम्बन्ध हुआ उसको) दूसरा कोई परणे यह हमारी प्रतिष्ठा में निश्चित ही कलंक कालिमा पोतने वाला है अतः यूपको अपनी इज्जत एवं खानदान का भी विचार करना चाहिये । तीसरा-कुछ भी हो मैं तुम्हें दीक्षा अङ्गीकार करने की आज्ञा कभी भी प्रदान नहीं करूंगा। इस तरह चोखा एवं उनके माता पिता के बीच पर्याप्त बोलाचाला होती रही, उसको फुसलाने का अनुकूल प्रतिकूल प्रयत्नों से पर्याप्त परिश्रम किया १४५६ पद्माशाह का पुत्र चौखा वैरागी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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