SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० सं० ५५८ से ६०१] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भविष्य का उन्नति मार्ग दो प्रकार से अवरुद्ध होजायगा । एक तो स्वयं भी आत्मकल्याण की उत्कृष्ट भावनाओं से, मुक्ति एवं परम निर्वृत्तिमय धाम से सैकड़ों कोस दूर हो जायेंगे और दूसरा भद्रिक जनता के लिये स्वाभाविक अश्रद्धा के कारण बन जावेंगे। प्यारे श्रमणवर्ग ! वीरों की सन्तान वीर होती है न कि कायर । जो कायर हैं वे वीर पुत्र कहलाने के अधिकारी नहीं । हमारा इस अवस्था में साधुवृत्ति में रहते हुए) क्या कर्तव्य है, यह आप लोगों से प्रच्छन नहीं कारण, हमने सांसारिक एवं पौद्गलिक अस्थिर, क्षणभुङ्गुर सुखों पर लात मार कर, मुक्ति मार्ग की आराधना को चरम लक्ष्य बना, परम कल्याण मय चारित्र पथ स्वीकृत किया है। अतः अपने अन्तिम लक्ष्य को विस्मृत न करते हुए शासनोन्नति करने के साथ ही साथ आत्मोन्नति ध्येय को भी अपनी उन्नति का मुख्य अङ्ग मानकर तन मन से शासन कार्य में जुट जाना चाहिये । इसी में स्वपरोन्नति सन्निहित है। __ मैं जानता हूँ कि सिंह थोड़ी देर के लिये तंद्रावश हो निर्जीववत् गिरिकंदरा में सो जाता है तो क्षुद्र मक्षिकाएं भी उसके मुखपर बैठजाती हैं किन्तु जब वह दूसरे ही क्षण हाथ उठाकर गगन भेदी गर्जना करता है तब मक्षिकाएं तो क्या पर, झरते हुए मद से मदोन्मत्त बनी हुई गजराशि भी शक्ति विहीन निस्तेज होजाती है। उदाहरणार्थ-जब उपाध्य देवचंद्र मुनि ने चैत्यव्यवस्था के कार्य में अपने वास्तविक यमनियम को विस्मृत कर दिया तब, सर्वदेव सूरि की सिंह गर्जना ने उन्हे पुनः जागृतकर उपबिहारी बना दिया। श्रमणों ! आज मैं अपने बन्धुओं में कुछ शिथिलता का अंश देख रहा हूँ। अत: इसको निवारण करने के लिये ही श्रमण सभा का आयोजन किया गया है । मुझे यही कहना है कि हम लोग आई हुई शिथिलता को दूर कर शीघ्र ही शासनोन्नति के कार्यों में सलंग्न हो जावें । कारण शिथिलता एक चेपी रोग है; इसके फैलने में देर नहीं लगती है। अतः इसके स्पर्श को नहीं होने देने में ही अपना गौरव है। दूसरा शिथिलता का एक कारण यह भी है कि - हमारे अन्दर शिष्य पिपासा बढ़ गई है दीक्षेच्छुकों के त्याग वैराग्य की भी परीक्षा नहीं करते हैं, न उनकी योग्यता को दीक्षा की कसौटी पर ही कसते हैं। बस शिष्य लालसा की पिणसा की धुन में शासन हित की महत्व पूर्ण जिम्मेवारी को भूल, नहीं करने योग्य कार्य को भी कर्तव्य रूप बना लेते हैं । अन्त में परिणाम स्वरूप शासन के भारभूत वे अयोग्य दीक्षित रसगृही, लोलुपी, इन्द्रिय पोषक, सुखशलिये बनकर अपने साथ में अनेकों का अहित कर शासन को भारी हानि पहुँचाते हैं । पहिले जो दीक्षाएं दी या ली जाती थीं वे सब कल्याण की उन्नत भावनाओं से प्रेरित होकर के ही किन्तु, सम्प्रति कही कही इससे विरुद्ध सा ही दृष्टि गोचर हो रहा है । हम लोग अपनी जमात बढ़ाने के लिये योग्यायोग्य का विचार किये बिना प्रत्येक को-चाहे वैराग्य के रंग से रंगा हुआ न भी हो-दीक्षा देते जा रहे हैं। इस प्रकार जबर्दस्ती शिष्य बढ़ाने की अभिलाषा भी तब ही उत्पन्न होती है जबकि हम अपने गुरु को छोड़ बड़े बन अलग होने का प्रयत्न करते हैं। यदि गुरुकुलवास में रहने में ही गौरव समझा जाता हो तो न तो अलग बाड़ा बंदी की जरूरत है और न अयोग्य को दीक्षा देने की आवश्यकता है । प्यारे श्रमणो! आप दीर्घ दृष्टि से सोच लीजिये कि न इस कुप्रकृत्ति से शासन का हित है और न आत्म कल्याण ही। प्रिय आत्म बन्धुओं ! शासन का उद्धार एवं प्रचार आप जैसे भमण वीरों ने किया और भविष्य में भी श्राप जैसे साहसी ही कर सकेंगे । अतः श्राचार विचार विषयक शैथिल्य को छोडकर शासन प्रभावना प १०१६ शासन दशा का चित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy