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________________ प्राचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ९५८-१००१ आचार्य काकसूरि एक महान् प्रतिभाशाली, तेजस्वी प्राचार्य हुए । आपके आज्ञानुवर्ती हजारों साधु साध्वी पृथक् २ क्षेत्रों में विचर कर जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे किन्तु काल दोष से कुच्छ श्रमण मण्डली में साधु वृत्ति विषयक राम नियमों में कुछ शिथिलता श्राचुकी थी। श्री सूरिजी से संयम वृत्ति विघातक शिथिलता सहन न हो खसी । उन्हें इसका प्रारम्भिक चिकित्सोपचार ही हितकर ज्ञात हुआ। वे विचारने लगे कि जिन सुविहितों चैत्यवास करते हुए भी शासन की महती प्रभावना की उन्हीं में आज कलिकाल की करता से चरित्र विराधा वृत्ति ने आश्रय कर लिया है अतः इसका प्रथम स्टेप में अन्तकर देना भविष्य के लिये विशेष अयस्कर है अन्यथा यही शिथिलता भयंकर रूप धारण कर परिष्कृत मार्ग को भी अवरुद्ध कर देगी। बस, उ. विचारधारानुमार वे शीघ्र ही जावलीपुर पधार गये। वहां के श्रीसंघ को उपदेश से जागृत कर, प्राविष्ट होती हुई शिथिलता को रोकने के लिये, निकट भविष्य में ही श्रमण सभा करने के लिये प्रेरित किया। श्रीसंबने भी धर्महास की दीर्घदृष्टि का विचार कर प्राचार्यश्री के वचनों को शिरोधार्य किया तत्काल एक सुन्दर योजना बनाकर आचार्यश्री की सेवा में रखदी गई। उक्त निश्चय नुसार बहुत दूर दूर के प्रदेशों में श्रामंत्रण पत्रिकाएं भेजी गई । सर्व साधुओं को जाबलीपुर में एकत्रित होतो के लिये प्रार्थना की गई । आमन्त्रण पत्रिकाओं को प्राप्त कर धर्म प्रेम के पावन रस में लीन हुए, उसके शगच्छीय, कोरंटगच्छीय, और वीर परम्परागत मुनिवर्ग, एवं श्राद्ध समुदाय ठीक दिन जाबलीपुर में एपित हुए । निर्धारित समयानुसार सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ । सर्व प्रथम श्रमण सभायोजना के उद्देश्यों का जन समाज के समक्ष सविशद दिग्दर्शन कराया गया। तत्पश्चात् श्राचार्यश्रीककसूरिजी ने ओजस्वी बाणी द्वारा सकल जन समुदाय को अपनी ओर चुम्बक वत् आकर्षित करते हुए प्रेम, संगठर, आचार व्यवहार, समयोचित कर्तव्यादि के अनुकूल विषयों पर संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित उपदेश देना प्रारम्भ किया । सूरिजी ने फरमाया कि महानुभावों ! अाज हम सब किसी एक विशेष शासन के कार्य के लिये एकत्रित हुए हैं। हा सबों में पारस्परिक गच्छ-समुदाय का भेद होने पर भी वीतराग देवोपासक बार व्यवहारों की समानता से जैनत्व का दृढ़ रंग सभी में सरीखा ही है हम सब एक पथ के पथिक हैं। भगवान महावीर के शासन की रक्षा एवं वृद्धि करना ही सब का परम ध्येय है। किन्तु, वर्तमान में हमारे शासन की क्या दशा होगई है ? यह किसी समयज्ञ से प्रच्छन्न नहीं है । जब कि एक और अन्य लोग अपना प्रचार कार्य अन्नरस गति पूर्वक बढ़ा रहे हैं तब दूसरी ओर हमारे में कही कही शिथिलता ने प्रवेश का दिया है। मृत तुल्य वाममार्गियों में पुनः जीवन आ रहा है । वेदान्तियों में हिंसा जनक विधानों के यज्ञ कार्य प्राय: लुह सा होगया तथापि देवदेवियों के नाम पर उत्तेजना मिल रही है तब, हमारे में नये नये गच्छ, मतमतान्तर एवं समुदायों का प्रादुर्भाव होकर संगठित शक्ति का ह्रास किया जा रहा है। श्रमण वर्ग भी साधुत्व वृत्ति साधक श्राचार व्यवहार की ओर विशेष ध्यान नहीं देते है । बन्धुओं ! अपने पूर्वजों ने जैनेतरों पर जैनधर्म का जो स्थायी प्रभाव डाला था, उसमें मुख्य उनके प्राचार विचार विषयक उत्कृष्टता, भनेकान्त सिद्धान्त ज्ञान की गम्भीरता ही कारण हैं जैन श्रमणों के प्राचार का तुलनात्मक दृष्टि से इतर कोई दर्शन साम्य नहीं कर सकता है। साधारण जनता में जो साधुओं के प्रति, एवं धर्म के प्रति श्रद्धा है उसमें अपने क्रिया काण्डों की दुष्क तावं श्रात्म कल्याण की अभीप्सित भावनाओं की सुगमता ही प्रधान हेतु है । अतः अपने आचार विचारों में, या नियमों में, शास्त्रीय विधानों में किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता ने प्रवेश किया नहीं कि जावलीपुर में संघ सभा १०१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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