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प्राचार्य ककसरि का जीवन ]
| ओसवाल सं० ९५८ से १००१
वहित (श्रात्म कल्याण ) के लिये कटिबद्ध हो जाइये । अपने पूर्वजों ने तो हजारों लाखों दुस्सह यातसानों एवं कठिनाइयों को सहन कर 'महाजनसंघ' रूप एक बृहद् संस्था संस्थापन की है तो क्या हम (तने गये बीते हैं कि-पूर्वाचार्यों के बनाये महाजनसंघ की वृद्धि न कर सकें तो-रक्षा भी न कर सकें ?
हा, कदापि नहीं । मुझे दृढ़ विश्वास है कि अत्रागत श्रमण वर्ग अवश्य ही अपने कर्तव्य को पहिचान कर शासनोन्नति के कार्य में सलग्न हो जायेंगे।
___ साथ ही दो शब्द श्राद्ध वर्ग के लिये प्रसङ्गोपेत कह देना भी अनुचित न होगा । कारण, तीर्थङ्कर भगवान् ने चतुर्विध श्रीसंघ में आपका भी बराबरी का श्रासन रक्खा है । पूर्वाचार्यों ने इत उत सर्वत्र देश विदेशों में जो जैनधर्म का प्रचार किया है उसमें, आपके पूर्वजों का भी तन, मन, एवं धन से यथानुकूल सहयोग पर्याप्त मात्रा में था । आपका कर्तव्य मार्ग तो इतना विशाल है कि यदि कभी साधु अपनी साधुत्व वृत्ति से विचलित हो जाय तो आप उसे पुनः भक्ति से कर्तव्य मार्गारूढ़ बनाकर शासनोन्नति में परम सहायक बन सकते हैं।
श्रमण संघ में जो शिथिलता आती है वह भी, श्राद्ध वर्ग की उपेक्षा वृत्ति से ही। जब तीर्थकर, गणघरों ने साधुओं के लिये शीतोष्ण काल में एक मास और चातुर्मास में चार मास की मर्यादा का समय बांध दिया है तथा वस्त्र, पात्र वगैरह हर एक उपकरणों के कल्पाकल्प का नियम बना दिया है तो क्यों कर भाद्ध वर्ग उक्त नियम विघातक साधुओं को उत्तेजना देकर शिथिलता फैलाते हैं ? इन नियमों का अतिक्रमण कर स्वच्छंद विचरने वाले साधु को श्रावक, हरएक तरह से सन्मार्ग पर ले आने के लिए स्वतंत्र है । यों तो आवक, साधुओं के-संयम वृत्ति निर्वाहकों को पूज्य भाव से वंदन करता है पर फिरभी शास्त्रकारों ने इन्हें माता पिता की उपमादी है । रत्नों की माला में साधु, श्रावक को एकसा ही बतलाया है अर्थात्-साधु, श्रावक भगवान् के पुत्र तुल्य हैं । उदाहरणार्थ एक पिता के दो पुत्रों में एक भाई के घर में नुक्सान हो तो क्या दूसरा भाई इसकी अवहेलना कर खड़े खड़े देखा करे ? नहीं कदापि नहीं; तो यही बात साधु श्रावकके लिये समक कीजिये।
सूरिजी के उक्त प्रभावोत्पादक वक्तृत्व ने श्रमण एवं श्राद्धवर्ग की सुप्त आत्माओंमें अपूर्व शक्ति संचा. जन करदी । वे सब प्रोत्साहित हो सूरिजी से अर्ज करने लगे--भगवन् ! श्रापका कहना सोलह आना सत्य है । आप शासन के शुभ चिंतक हैं । आपकी आज्ञा हम शिरोधार्य करते हैं । हम आज से ही अपना कर्तव्य अदा करने में सदा कटिबद्ध रहेंगे ।
यों तो पूज्य गुरुदेवों ने आत्म कल्याण के लिये पौद्गलिक सुखों का त्याग करके ही संयम वृत्ति को स्वीकार की है तो फिर वे अपना या शासन का अहित कैसे करेंगे ? फिर भी कोई शिथिल होगा तो हम मर्ज कर के या संघ सत्ता से उसे उपविहारी बनाने का प्रयत्न करेंगे।
इस तरह सूरिजी महाराज का परमोपकार मानते हुए वीर जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जित हुई। श्राज स्या श्रावकों में और क्या साधुओं में-जहां देखो वहां ही सूरिजी के व्याख्यान की प्रशंसा हो रही थी । विशेष प्रसन्नता तो जाबलीपुर के श्रीसंघ को थी कि सर्व कार्य निर्विघ्नतया, सानंद, सोत्साह सम्पन्न होगया।
दूसरे दिन एक श्रमण सभा हुई । इसमें आये हुए साधुओं के खास खास आचार्यों को एकत्रित कर जैनधर्म का व्यापक प्रचार करने एवं वादियों से शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की सुयशःपताका चतुर्दिक फहराने की सूरिश्वरजी का उपदेश
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