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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
हुआ। पर विवाह शादी में ७२ बोहतर गौत्र से ही काम लिया जाता था। खैर सब कुछ अच्छा ही हुआ परन्तु यह समय तो पंचमआरा एवं कलिकाल का है किसी की अति चढ़ती कुदरत से देखी नहीं जाती है वह किसी न किसी प्रकार से उन्नति में रोड़ा अटका ही देती है इस जाति का जन्म वि० सं० ७९५ में हुआ था करीब ३०० वर्ष तक तो इस जाति का खूब अभ्युदय होता रहा वे व्यापार एवं राज्य सेवा से खूब बढ़े इधर महाजनसंघ के साथ रोटी बेटी व्यवहार हो जाने से भी इनकी गिनती ओसवाल जाति में एवं महाजनसंघ में हो गई।
वि० सं० ११०३ में सेठ जाति के कतिपय राज कर्मचारियों के हृदय में अभिमान ने वास कर लिया कई मान रूपी हस्ती पर सवार होकर हुकूमत के जरिये जनता को बड़ी भारी तकलीफें भी देने लगे। जाति मत्सरता के कारण औरतों को पर्दे में रखना भी शुरू कर दिया तथा न्याति-जाति में अपनी औरतों को भेजना बन्द कर दिया और भी ऐसी-ऐसी अहंपद की बातें करने लग गये कि वे गजवर्गी सेठिये अपनी लड़की भी अपने बराबरी के सेठिये में ही देने लगे इतना अहंपद करने लगे कि जो कुछ हैं सो हम ही हैं दसरे तो कुछ भी चीज नहीं है यही कारण है कि महाजनसंघ ने सेठ जाति के साथ बेटी व्यवहार बन्द कर दिया तथा उस समय दोनों ओर संख्या अधिक होने से किसी को भी तकलीफ नहीं हुई दूसरा एक यह भी कारण है कि महाजनसंघ जैसे तोड़ना जानते हैं वैसे जोड़ना नहीं जानते हैं कारण तोड़ने में जैसे मुख्य अहं. पद है वैसे जोड़ने में मुख्य नम्रता होनी चाहिये उसका तो प्रायः अभाव था। चाहे भविष्य में इससे कितना ही नुकसान क्यों न हो पर वे टूटा हुआ व्यवहार नम्रता से पुनः जोड़ नहीं सकते थे। आगे चल कर वस्तु पाल तेजपाल के कारण समाज में दो पार्टियों बन गई उनके बाद भी हजारों मांस, मदिरा सेवी क्षत्रियों को दर्व्यसन से छडा कर महाजनसंघ में शामिल कर लिये पर अपने सदृश्य व्यवहार वाले भाइयों से टूटे व्यव. हार को वे जोड़ नहीं सके यही कारण है कि एक ही महाजनसंघ के कई टुकड़े हो जाने से उनकी समूह शक्ति का चकनाचूर हो गया और इस प्रकार संगठन टूट जाने से केवल छोटी-छोटी जातियों को ही हानि हुई थी सो नहीं, पर महाजनसंघ को भी कम हानि नहीं हुई उनका संगठन तप, तेज, मान, महत्व, मर्यादा उस रूप में नहीं रह सकी इतना होने पर भी इस ओर अद्यावधि में किसी का भी लक्ष नहीं पहुँचा जैसे:
शहर के बाहर एक बाबाजी का मठ था और उसमें एक चनों की कोठी भरी थी। अकस्मात् बाबाजी के मठ में लाय (अग्नि) लग गई जिससे कोठी के चने स्वयं भुन गये। जब यह खबर शहर में हुई कि बाबाजी के मठ में आग लग जाने से बहुत नुकसान हुआ है । तब शहर के लोग हवा खोरी में घूमते हुये बाबाजी के यहाँ पाए वहाँ भुने हुए चने पड़े थे जिनको हाथ में ले फूकें लगा-लगा कर खाने लगे और बाबाजी से कहने लगे कि महात्माजी आपके नुकसान होने से हमें बड़ा ही दुःख हुआ। बाबाजी ने कहा बच्चा नुकसान तो हआ सो हा ही पर अभी तक होता ही जा रहा है। बाबाजी के कहने का मतलब यह था कि श्राग से बचे हुए चना जो भूने गये यदि इतना ही रह गये तो उष्ण काल में थोड़े-थोड़े खाकर पानी पी लिया करेंगे तो हमारे कई दिन निकल जायंगे । पर जो आते हैं वही मुट्टा भर कर चना खाना शुरू कर देते हैं। और फिर पुछते हैं कि बाबाजी के नुकसान हुआ । अरे ! नुकसान तो अभी होता ही जा रहा है। "ठीक वह युक्ति महाजनसंघ के लिये घटित होती है कि नुकसान हुआ और अभी तक होता ही जा रहा है।" ____ सेठिया जाति ने जिस दिन से जैनधर्म स्वीकार किया था उस दिन से आज तक श्रद्धा पूर्वक जैनधर्म
बेटी व्यवहार कयों टूटा ?
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