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वि० सं० ४८०-५२० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
खैर प्रत्येक मनुष्य एक गाय को रखते तो भी करोडों मनुष्य द्वारा करोड़ों गाया का रक्षण अवश्य होता था भारत में घृत ख.ने पीने के बाद भी करोड़ो मन घृत की बचत होती थी तब विदेशों के लोग भारत का घृत आने से ही घृत के दर्शन करते थे।
शाह राजसी छोटे बड़े ग्रामों के लोग घृत लाते थे उसको भी खीद कर लिया करता था एक सय का जिक्र है कि एक गामड़े को औरत घृत का घड़ा लेकर राजसो की दुकान पर आई और उसने कहा सेठजी मैं आवश्यक कार्य के लिये शार में जाती हूँ। आप मेरे घृत के घड़े से घृत तलकर ले लिर वे मैं वापिस आती वख्त मेरा घड़ा और घृत के रुपये ले जाउंगी। यह जमाना विश्वास का, न्य य का, नीति का, और धर्म का था प्रायः किसी पर किसी का अवि नीं था जिसमें भी व्यापारी लोगों का तो सर्वत्र विश्वास था । बस सेठजी घृत के घड़े से घृत निकाल कर तोलने लगे किन्तु घृत निकालने पर भी घड़ा खाली नहीं हुआ ज्यों-ज्यों घृत निकाल कर तोलता गया त्यों-त्यों घड़े में घृत आता गया इसको देख सेठजी आश्चर्य में डूब गये कि क्या बात है करीब आध मण के घड़े से मैंने मग भर घृत तोल लिया फिर भी घड़ा रोता नही हुआ पर भरा ही पड़ा है इस पर सेठजी ने : पनी अकल दौड़ाई पर उनको कुछ भी पता नहीं लगा पास ही में सेठजी का पुत्र धवल बैठा था उसने विचार किया तो मालूम हुआ कि इस घड़े के नीचे आरी है शायद यह चित्रावली तो न हो ? मैंने चित्रावली देखी तो नहीं है पर व्यारयान में कई बार सुनी थी कि जिस बरतन के नीचे चित्रावली रख दी जाय वह वस्तु अखूट हो जाती है धवल ने अपने पित जी से कहा और पिताजी की सुरत उस आरी की ओर पहुँची। राजसी ने सोचा कि घृत वाली तो इस आरी को इधर उधर डाल देंगीतः उसको मूल्य दे दिया जायगा अतः राजसी ने उस चित्रावली वाली आरी को उठाकर अपने खजाना के नीचे रखदी जा घृतवाली औरत राजसी की दुकान पर आई और कहा सेठजी घृत के रुपये दो । राजसी ने कहा माता हमेशा तेरे घृत घड़े के जितने रुपये होते हैं उतने मेरे से ले जाओ। कारण मैं तेरे सब घृत को तोल नही सका?इस पर डोकरी ने जितने रुपये मांगे उतने राजसी ने दे दिये । जब घड़ा हाथ में लिया तो उसके नीचे की आरी नहीं पाई डोकरी ने कहा सेठजी मेरे घड़े की भरी कहाँ गई ? सेठजी ने कहा भारी तो मैंने ले लं है । डोरी तेरे तो ऐसी आरियाँ बहुत होंगी यदि तूं कहे ती मैं तुझको पैसे दे दू जो तेरी इच्छा हो उतने ही माँग ले। डोरी ने एक मामूली जंगल की ल्ली तोड़कर आरी बनाइ थी अतः उसने कहा लीजिये इसके आपसे क्या पैर सेठजी ने कहा नहीं डोरी मैं तेरी भारी मुफ्त नहीं रख सकता हूँ जो तू मह से माँगे वही मैं देने को तैयार हैं। डोकरी ने कहा अच्छा आपकी यही इच्छा है तो थोड़ासा गुड़ मुझे दे दीजिये । सेठजी ने उठा कर पाँच सेर गुड़ दे दिया। परन्तु डोकरी इतना गुड कैसे ले सके कारण वह जानती थी कि मेरी भारी कुछ मूल्यवान नहीं है फिर मैं सेठजी का इतना गुड़ कैसे लूँ अतः उसमे इन्कार कर दिया । सेठजो ने कहा माता तेरो आरी मेरे लिये बहुत काम की है मैं खुशी से देता हूँ तूं गुड़ लेजा। था कि एक मन बीज का सौमण माल पैदा कर सकते थे जैसे आज यूरोप में करते हैं जब खेती गौरक्षण और व्यापार अलग अलग हो गये तो सबकी दुर्दशा हो गई कारण खेती करने वाला खेती शिक्षा से अनभिज्ञ-अनपढ़ है और न उनको इतने साधन ही मिलते है अतः वे ऋण चुकाने के बाद अपना पेट भी मुश्किल से भरते हैं और गायों की भी बडी भारी दुर्दशा होती है क्योंकि मूल्य का लाया हुआ चारा-घास डालने वाला उन खर्चों की पूर्ति करने के पहिले न तो दूध दही घृत अपने काम में ले सकता है और न उनको पुरी खुराक ही दे सकता है यही कारण है कि यूरोप में एक गाय का एक मन न होता है तब हमारे यहाँ दो सेर दूर होता है पूर्व जमाने में एक एक गाथापति के वहाँ हजारों गायों रहती थी तब आज हमारे भारत में गिनती को गायें रह गई है तीसरा व्यापार का भी अधो पतन हो गया अब्वल तो हमारे अन्दर पुरुपार्थ नहीं रहा कि हम स्वयं व्यापार कर सके । दूसरे हमारे पास व्यापार करने जितना न्यभी नहीं रहा अतः सट्टा दलाली
मीशन ही हमारा व्यापार रह गया अर्थात ६श गांठ दूसरों से लाये और दश गांठ बेच दी। सौ बोरी लाये और सौबोरी देगी। यही हमारा व्यापार रहा है भला । इसमें क्या मुनाफा मिल सके कि जिससे अपने खर्चा की पूर्ति हो सके । जब घर खचर्चा का भी यह हाल है तो देश समाज एवं धर्म कार्यों के लिये तो हम कर ही क्या सकते हैं ? ८८०
[ वैश्य वर्णन का कर्त्तव्य खेती वाणज्य गौधन पालन For Private & Personal Use Only
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