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________________ आचार्य देवगुप्त सूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८८०-९२० डोकरी बहुत खुश होकर गुड़ ले गई । बस सेठजी के भाग्य खुल गये इसमें मुख्य कारण सेठजी का पुत्र धवल ही था अतः राजसी नेअपने पुत्र धवल को ब्रह्मचारी भाग्यशाली समझा और कहा बेटा तेरे पुन्य से या चित्रावली अपने घरमें आई है। इसका कुछ सदुपयोग किया जाय तो अच्छा है व ना जैसे जंगल में पड़ी थी वैसे ही अपने घर में पड़ी रहेगी। धवलने कहा पूज्य पिताजी आप ही पुन वान हैं और आपके पुन्य प्रताप से ही चित्रावली आई और आपका कहना भी अच्छा है कि इसका सदुपयोग करना ही कल्याणकारी है मेरा ख्याल से तो जिन मन्दिर बनाना तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालना महाप्रभाविक भगवत्यादि सूत्र का महोत्सव कर संघ को सुनाना साधर्मीभाइयों को सहायता देना और गरीब जीवों का उद्धार करना इसमें लक्ष्मी व्यय की जाय तो चित्राबल्ली का सदुपयोग हो सकता है। राजसी ने धवल के वचन सुनकर पूछा कि बेटा ! तुझे यह किसने सिखाया ? बेटे ने कहा कि गुरु महारान हमेशां व्याख्यान में फरमाते हैं कि श्रावक के करने योग्य ये कार्य हैं। ताजी अब इन कार्यों में बिलम्ब नहीं करना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की स्थिति होती है वह अपनी स्थिति से अधिक ए. क्षण भर भी नहीं ठहरती है दूसरा मनुष्य का आयुष्पकी अनिश्चित होता है इसलिये साधन के होते हुए कार्य शीघ्र ही कर लेना चाहिये । राजसी ने कहा ठीक है बेटा। पर इस बात को अभी किसी को भी नहीं कहना। बेटा ने कहा ठीक है पिताजी। __ माग्य वशात् इधर से धर्मप्राग लब्ध प्रतिष्ठित कुन्कुन्दाचार्य महाराज उपकेशपुर से विहार करते हुए खटकुम्प नगर की ओर पधार रहे थे जिसके शभ समाचार सुनते ही नगर भर में आनन्द, मंगल और सर्वत्र हर्ष छा गया जिसमें भी शाहराजसी के तो हर्ष का पार नही था क्योंकि उनको इस समय आचार्य देवकी पूर्ण जरूरत थी शाह राजसी ने अपने शुभ कार्य के मंगलाचरण में सूरिजी महाराज के नगर प्रयेश का महोत्सव किया जिसमें नौलाख रुपये व्यय कर दिये कारण साधर्मी भाईयों को सोना मुहरों एवं वस्त्रों की प्रभावना और याचकों को पुष्कल दान दिया। सूरिजी महाराज ने थोड़ी बहुत हृदय ग्राही देशनादी तत्पश्चात परिषदा विसर्जन हुई । एक समय शाहराजसी अपने पुत्र धवल को साथ लेकर सुरिजी के पास आया वन्दन कर अर्ज कि भगवान् धवल का इरादा है कि एक मन्दिर बनवाउ और तीर्थों की यात्रार्थ एक संघ निकालू अतः इसके लिये खास आपकी सम्मति लेनी है कि आप हमको अच्छा रास्ता बतलावे सूरिजी ने कहा राजसी पहिले तो यह निर्णय हो जाना चाहिये कि तुमको इस शुभ कार्य में कितना द्रव्य व्यय करना है क्योंकि हिना द्रव्य व्यय करना हो उतना ही कार्य उठाया जाय । राजसी ने कहा प्रभो ! आप गुरुदेवों की कृपा से सब आनन्द है कार्य अच्छा से अच्छा किया जाय उसमें जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी उतना ही द्रव्य मैं लगा सदूंगा। बस फिर तो था ही क्या । सूरिजी ने कहा राजसो तूं और तेरा पुत्र धवल बड़ा ही भाग्यशाली है संसार में जन्म लेकर मरजाने वाले तो बहुत हैं पर अपने कल्याग के साथ शासन का उद्योत करने वाले विरले मनुष्य होते हैं। मन्दिर बनाना एक जैनधर्म को स्थिर करना है जन संहार दुकाल और बड़ी बड़ी आफतों के समय जैनधर्म जीवित रह सका है इसमें मुख्य कारण मन्दिरों का ही हैं संघ निकाल का संघ को तीर्थों की यात्रा करवाना यह भी एक पुण्यानुबन्धी पुन्य का कारण है इसमें उत्कृष्ट भावना आने से तीर्थकर नार कर्म भी उपार्जन कर सकता है तुमने इन दोनों पुनीत कार्यों का निश्चय किया है अतः तुम बड़े ही पुन्यरान हो। राजसी ने कहा पूज्यवर ! यह आप जैसे गुरुदेवों के उपदेश का ही फल है आद्याचार्य रुप्रभसूरि ने हमारे पूर्वजों को मिथ्याव से बचाकर जैनधर्म में दीक्षित कर महान उपकार किया है कि उनकी सन्तान परम्परा में आज हम इस स्थिति को प्राप्त हुए हैं । कृपा कर आप अच्छा दिन देखकर फरमायें कि किस तीर्थङ्कर का मंदिर बनाया जाय? और आपश्री यहां पर चतुर्मास करावें कि संघ निकालने का कार्य भी शीघ्र ही बन जाय ? सूरिजी ने कहा चतुर्मास की तो क्षेत्र स्पर्शना है पर वैशाख शुक्ला तृतीया का शुभ दिन अच्छा है । शाह राजसी ने शिल्पज्ञ कारीगरों को बुलाया और बढ़िया से बढ़ियो मन्दिर का नकशा बनवा कर सूरिजी की सेवा में हाजिर किया जिसके पास हो जाने से मन्दिर कार्य प्रारम्भ कर दिया। तत्पश्चात् श्री संघ ने साग्रह चतुर्मास की विनती की और आचार्य श्री ने लाभ का कारण जान स्वीकार करली बस रूटकर नगर में बड़ा ही हर्ष उमड़ उठा । शाह राजसी के मनोरथ सफल हो गये। सूरिजी कुंकु'दाचार्य का खटकूप नगर में पधारना ] ८८१ Jain Education Internal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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