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________________ आचार्य देवगुप्त का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ८८० - ९२० जिससे शरीर का स्वास्थ्य अच्छा रहता है दूसरा खेती से गृहस्थों के आवश्यकता की तमाम वस्तुओं सहज ही में पैदा हो सकती हैं जैसे गेहूँ बाजरी ज्वार मुग मोट चौला चना तुवर गवार तिल सब तरह के शाक पात और कपास गुड़ वह अतः खेती करने वाले को गृहकार्य के लिये प्रायः एक पैसा काटने की जरूरत नही रहती है इतना ही क्यों पर दरजी सुथार नाई तेली धोबी ढोली वगैरह जितने काम करने वाले हैं उनकों साल भर में धान के दिनों में धान देदिया जाता था कि साल भर में तमाम काम कर दिया करते थे । यह तो हुई गौरक्षण और खेती की वात अब रहा व्यापार जब व्यापार में जितना द्रव्य पैदा किया जाता था वह सबका सब जमा होता था कि जिसकों समझ दार त्रास्तिक लोग देश समाज एवं धर्म जैसे परमार्थ के कार्यों में लगा कर भविष्य के लिये कल्याण कारी पुन्योपार्जन करते थे । अतः उनका जीवन बड़ा ही शान्ति मय गुजरता था । यही हाल राजसी का था शाह राजसी जैसे खेती और गौ रक्षण करता करवाता था वैसे व्यापार भी बड़े प्रमाण में करता था उसके व्यापार में मुख्य घृत तैल का व्यापार था और लाखों मरण घृततैल खरीद कर के विदेशो में ले जाकर वेचता था इसका कारण यह था कि भारत में इतना गौधन था कि भारत की जनता पुष्कल दूध दही घृत काम लेने पर भी लाखों मन घृत बच जाता था इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस जमाना में भारत में गौवन का रक्षण बहुत संख्या में होता था श्री उपासक दशांगसूत्र में भगवान महावीर के दश गाथापति ( वैश्य ) श्रावकों का वर्णन किया है जिसमें किसी के एक गौकुल, किसी के चार, किसी के छ, किसी के आठ गोकुल थे एक गोकुल में दश हजार गाये थी भले पिच्छले जमाना में काल दुकाल के कारण जैसे मनुष्यों की संख्या कम हुई वैले गायों की संख्या भी कम हो गई होगी परन्तु वे कितनी कम हो सके १ मानों कि दश हजार गायों रखने वाला एक हजार तो रखता होगा या एक हजार नही तो भी एक सौ तो रखता ही होगी ? x + एक अनुभवी का कहना है कि अधुनिक अर्थ शास्त्र के अभिज्ञ लोगो ने खेती में पाप बतला कर वैश्यवर्गको खेती करने के त्याग करवा दिये है । और भद्रिक जनता पाप के डर से खेती से हाथ भी धो बैठी है । इससे पाप कम नहीं हुआ पर कई गुणा बढ़ गया हैं एक तो शरीर से परिश्रम किया जाता था जिससे शरीर का स्वास्थ्य अच्छा रहता था पर परिश्रम कम होने से शरीर अनेक प्रकार की व्यथियों का घर बन चुका है। इससे सन्तान भी कम हो गई। दूसरा गृह कार्य के लिये तमाम आवश्यक पदार्थं खेती से प्राप्त होता था वह बन्द हो जाने से पैसा काट कर मूल्य से खरीद करना पड़ता है इससे व्यापार से प्राप्त हुए पैसे जमा नहीं होते हैं बल्कि कभी कभी खर्च की पूर्ति न होने से आर्तव्यान करना पड़ता है और उस पूर्ति के लिये व्यापार में झूठ बोलना, माया कपटाई करना, धोखाबाजी, और विश्वासघातादि अनेक प्रकार से पाप एवं अधर्म कार्य करना पड़ता है जिससे पापकर्मों का संचय तो होता ही है पर साथ में संसार एवं धर्मं पक्ष की निंदा भी होती है जब मनुष्य झूठ बोलता है तो आामिक धर्म को खो बैठता है । समदार मनुष्य तो यहाँ तक कहते हैं कि एक ओर खेती का पाप और दूसरी और झूठ बोलने का पाप तराजु में रख कर तोले तो झूठ बोलने के सामने खेती का पाप कुछ गिनती में नहीं है कारण खेती करने वाला इरादा पूर्वक पाप नहीं करता है पर झूठ बोलने वाला इरादा पूर्वक झूट बोलता है इससे झूट बोलने वाला का पाप कई गुणा बढ़ जाता हैं तीस एक नुकशान और भी हुआ है कि जो खेती गौरक्षण और व्यागर एकही स्थान पर थे तब इन तीनों को आपस में मदद मिलती थी जैसे खेती करने से गौचर भूमि रह जाती तथा खेती में घास कौरह हो जाता कि गायों को तकलीफ नहीं होती थी तब गाय का दूध दही घृत हास मनुष्यों को मिल जाता उनको भी किसी प्रकार की तककफ नहीं उठानी पड़ती और व्यापार में द्रव्योपार्जन होता था उससे खेती के सत्र साधनों की प्रचूरता रहती थी और शरीर अच्छा रहने से वे खेती एवं व्यापार में चाहिये उतना परिश्रम तथा पुरुषार्थ कर सकते थे खेतों कों पुष्फल खात मिल जाता शाह राजसी का व्यापार और गौधन पालन ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ८७९ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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