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________________ आचार्य देव गुप्तसूर का जीवन ] [ ओसवाल सं० १००१-१०३१ कर जैनधर्म का जो उद्योत किया वह, अनुपम है। इसके लिये अखिल जैन समाज आपका चिरऋऋणी है । हमें बड़ा गौरव एवं अभिमान है कि हमारे धर्म के अधिपति श्री श्राचार्यदेव वर्तमान साधु समाज में अनन्य हैं आपकी विद्वता का पार मनुष्य तो क्या पर वृहस्पति भी पाने में असमर्थ हैं। आप का चमत्कार एवं धर्म प्रचार का उत्साह अतुल है । किन्तु, गुरु देव अब आपकी वृद्धावस्था हो चुकी है। यदि आप यहीं पर स्थिरवास करने का लाभ उपकेशपुर श्रीसंघ को प्रदान करेंगे तो हम अवर्णनीय कृपा के भागी बनेंगे । आपश्री के चरणों की सेवा भक्ति कर हम लोग भी आपश्री के किये असीम उपकारों का कुछ ऋण अदा करने में समर्थ होंगे। सूरिजी शान्त एवं स्थिर चित्त से श्रीसंघ की प्रार्थना को श्रवण करते रहे । क्षेत्र स्पर्शना का सन्तोषजनक प्रत्युत्तर दे सूरिजी ने संघ को विदा किया। इधर रात्रि में सूरिजी के पास परोक्ष रूप से देवीसच्चायिका ने आकर सूरिजी को वंदन किया। सूरिजी ने देवी को धर्मलाभ दिया । देवी ने प्रथना की कि भगवान् ! आप अपने पट्टपर उपाध्याय ज्ञानकलश को स्थापित कर यहीं पर स्थिरवास कर लीजिए । सूरिजी ने भी देवी की प्रार्थना को स्वीकार कर ली । प्रातः काल श्राचार्यश्री ने सकलसंघ के समक्ष अपने हृदय की इच्छा जाहिर की बस श्रीसंघ तो पहले से ही लाभ लेने को उत्सुक था ही श्रतः संघको आचार्यश्री के श्रानन्ददायक वचनों से बहुत ही श्रानन्द हुआ श्रादिश्यनाग गौत्रीय चोरलियाशाखा के शा. रावल ने सूरिपद के योग्य महोत्सव किया। सूरिजीने भ० महावीर के मंदिर में चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय ज्ञानकलश को सूरिपद से विभूषित कर दिया । सूरिपद के साथ ही साथ अन्य योग्य मुनियों को भी योग्य पदवियां प्रदान की। नूतनाचार्य का नाम परपरानुसार सिद्धसूरि रख दिया तदान्तर वृद्धसूरिजी ने कहा कि मैं तो वृद्धावस्था जन्य कमजोरी के कारण यहाँ पर ही स्थिरवास करूंगा और भाप शिष्य मण्डली के साथ विहार कर धर्म प्रचार करें श्रीसिद्ध सूरिजी ने श्रर्ज की कि- पूज्य गुरुदेव ! मैं क्षण भर भी आपके चरणों की सेवा को छोड़ना नहीं चाहता हूँ । इस वृद्धावस्था में भी श्रापभी की सेवा का लाभ न लूं तो मुझे श्रापश्री की सेवा का सौभाग्य प्राप्त ही कब होगा ? अतः दोनों सूरीश्वरों । यह चातुर्मास उपकेशपुर में ही स्थिर कर दिया व्याख्यान नूतनाचार्य सिद्धसूरि ही देते थे । वृद्ध सूरिजी तो अपनी अन्तिम संलेखना एवं आराधना में संलग्न थे । प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने शेष समय उपकेशपुर में ही व्यतीत किया । अन्त में समाधिपूर्वक १७ दिन के अनशन की भाराधना कर परम पवित्र पञ्चपरमेष्टि के स्मरण पूर्वक स्वर्ण धाम पधारगये । आचार्य देवगुप्तसूरि एक महान् प्रभावशाली आचार्य हुए। आपने अपने ३० वर्ष के शासन में अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर जैनधर्म की श्रमूल्य सेवा की । आपश्री की घबलकीर्ति का इतिहास जैन साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अति है। एसे महापुरुषों का जितना सम्मान करें उतना ही थोड़ा है। आचार्य आचार्यश्री ने अपना सारा ही समय धर्म प्रचार के महत्व पूर्ण कार्य में व्यतीत किया श्रतः श्राचार्यश्री कृत सम्पूर्ण कार्यों का दिग्दर्शन कराने के लिये तो एक पृथक खासा इतिहास तैयार किया जासकता है किन्तु में अपने उद्देश्यनुसार कतिपय उदाहरणों को उद्धृत कर देता हूँ: - चित्रकोट का किल्ला के विषय में वंशावलीकार लिखते हैं कि चित्रकोट का महामंत्री श्रेष्टिषर्य सारंग शाह थे आप एक समय घुडसवार हो जंगल से फिर कर शाम के समय वापिस लौट कर नगर में आ रहे थे उस समय एक कटहारा भारी लेकर आगे चल रहा था उसके कंधे पर कुहाडा था जिसकी सूरीश्वरजी का स्थिरवास Jain Education International 930 For Private & Personal Use Only १०४१ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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