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________________ वि० सं० ८३७-८४२] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यक्ष-ठीक है पूज्यवर ! आपको मैं वचन देता हूँ कि आप जब मुझे याद करेंगे आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। इस प्रकार वचन देकर देव तो अदृश्य होगया। इधर प्रतिक्रमण का समय होने से सकल साधु समुदाय भी निद्रा से निवृत्त हो क्रमशः प्रतिक्रमण प्रतिलेखनादि क्रियाओं को कर प्रातःकाल सूरीश्वरजी के साथ ही रवाना हो गये । मार्ग से कुछ ही दूर वीरपुर नामक नगर था अतः श्राचार्यश्री को भी वहीं पर पदार्पण करना था। आचार्यश्री मार्ग को अतिक्रमण कर चल रहे थे कि मार्ग के एक मठाधीश सन्यासी ने अपनी मन्त्र शक्ति के जरिये मार्ग में सर्प ही सर्प कर डाले । चारों तरफ सर्प ही सर्प दीखने लगे। एक पैर रखने जितना स्थान भी साधुओं को दृष्टिगोचर नहीं होने लगा। इधर आचार्यश्री का आगमन सुनकर जो भक्त लोग सामने आये थे वे भी सों की भयङ्करता के कारण वहीं पर रुक गये । इससे श्राचार्यश्री ने जान लिया कि निश्चित ही यह सन्यासी के मन्त्र की ही करतूत है अतः सूरिजी ने भी स्वाधीष्टित यक्ष का स्मरण किया। स्मरण करते के साथ ही यक्ष तत्काल अपने वचनानुसार सूरिजी की सेवा में उपस्थित होगया और सर्पो के जितने ही मयूर के रूप बनाकर सो को लेकर आकाश में उड़ गये । इससे सन्यासी को बहुत ही लज्जा ई। वह आचार्यश्री के पैरों में नत मस्तक हो कहने लगा-भगवन ! मैं भी आपका शिष्य हूँ। प्रभो ! मुझे यह विश्वास नहीं था कि जैन श्रमण इतने करामाती होंगे अतः आप जैसों के सामने मैंने मेरी अज्ञानता का परिचय दिया। क्षमा कीजिये दयानिधान! आपको मुझ पापी के द्वारा बहुत ही कष्ट पहुँचा है। कृपा कर आज का दिन तो श्राश्रम में ही विराजें जिससे मैं अपने पाप का कुछ प्रक्षालन कर सकूँ। आपकी थोड़ी बहुत सेवा का लाभ लेकर कृतार्थ हो सकू। सूरिजी भी सन्यासी के आग्रह से वहीं पर ठहर गये । नागरिक लोग आचार्यश्री का प्रभाव देख मन्त्र मुग्ध बन गये। सब लोग एक स्वर से सूरीश्वरजी की प्रशंसा करने लगे कि सूरीश्वरजी बड़े ही चमत्कारी एवं प्रभावक पुरुष हैं। दिन भर दर्शनार्थियों के श्रावागमन की अधिकता के कारण सन्यासी सूरीश्वरजी के सत्सङ्ग का लाभ नहीं उठा सका पर रात्रि में जब एकान्त स्थल में सूरिजी के साथ श्रात्म कल्याण विषयक जिज्ञासा दृष्टि से सन्यासी ने प्रभ किया तब सूरिजी ने स्पष्ट समझाया-सन्यासी जी! आत्म कल्याण न तो यन्त्रों में मन्त्रों में हैं और न चमत्कार दिखाने में ही हैं। ये तो सब बाह्य क्रियाएं है जो समय २ पर अहसत्व को बढ़ाने वाली व आत्मा के उत्कृष्ट ध्येय से आत्मा को पतित करने वाली होती है । आत्म कल्याण तो आत्माराम में परम निवृत्ति पूर्वक विचरण करने से ही होता है । सन्यासी जी ! हमारे साधु सन्यासी हैं और आप भी सन्यासी हो किन्तु आपके और इनके त्याग में कितना अन्तर है ! आप जल, अग्नि, कन्द, मूल, फल, वनस्पति आदि सब का उपभोग करते हैं और आरम्भ समारम्भ भी करते हैं पर हमारे श्रमणों के इन सब बातों का ताज्जीवन त्याग होता है। यदि आपकी भी आन्तरिक अभिलाषा त्याग वृत्ति स्वीकार करने की है तो श्राप भी ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करें। सूरिजी का कहना सन्यासी को बड़ा ही रुचिकर ज्ञात हुआ। उसने कहा पूज्य गुरुदेव ! आपका कइना सत्य है पर हम लोग अभी तक सभी तरह से आजाद रहे हुए हैं अतः इतने कठिन नियम हमारे से पाले जाने ज़रा दुष्कर हैं। दूसरा हमने इतने वर्षों तक इसी वेष में पूजा, प्रतिष्ठा पाई है अतः अब इसका यकायक त्याग करना जरा अशक्य है । इस पर सूरिजी ने कहा-सन्यासीजी ! मैंने तो आपको सलाह की तौर पर कहा है । चारित्र वृत्ति लेना न लेना तो आपकी इच्छा पर निर्भर है पर पूर्व काल में भी अम्बड परित्राजक वगैरह ने इसी वेश में रह कर परम पवित्र जैनधर्म की आराधना की है। जैनधर्म के प्रताप से देव लोक की दिव्य ऋद्धि के स्वामी हए और एक भव करके मोक्ष के आराधक भी हो जावेंगे। arenawwarnawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww १३२६ सन्यासी का चमत्कार और सरिजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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