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________________ आचार्य देषगुप्तसूरि का जीवन ] [ घोसवाल सं० १२३०-१२१२ सन्यासी - मैं आपके इन वचनों को स्वीकार करता हूँ और मेरे हृदय की एक शंका को भी आपकी सेवा में अर्ज कर देता हूँ। मेरी शंका यह है कि - जैसे वैदान्तिक, बौद्ध, चार्वाकादि नाम हैं वैसे जैन भी एक नाम है अतः यह तो दुनियाँ मैं अपने २ नाम की बाड़ाबन्दी ही है । मेरा वेश परिवर्तन करना भी इस बाड़े से छूट कर दुसरे वाड़े में जाने रूप ही हैं । अतः एतद् विषयक वाड़ाबन्दी से क्या लाभ है । सूरिजी - धर्म की पहिचान के लिये व एक नाम से दूसरे में भिन्नत्व का ज्ञात कराने के लिए ही वस्तु स्वरूप को नाम से सम्बोधित किया जाता है । जब दूसरे धर्म वालों ने अपने २ धर्म नाम रखे तो इस धर्म की पहिचान के लिये भी किसी न किसी नाम करण की आवश्यकता थी ही अत: जैन धर्म यह विशिष्ट अर्थ का बोधक है। उदाहरणार्थ - दस पांच वस्तुओं का एक स्थान पर एकीकरण होने के पश्चात् यदि उनके नामों में पारस्परिक भिन्नत्व न होगा तो वे वस्तुएं कैसे पहिचानी जा सकेंगी ? दूसरा एक दुर्गन्धयुक्त स्वास्थ्यगुण नाशक मकान को छोड़कर यदि स्वास्थ्यप्रद रमणीय, मनमोहक प्रसाद का आश्रय ले तो उसमें हानि नहीं पर लाभ ही है। इसी प्रकार सारम्भी, सपरिमही धर्म को छोड़कर त्याग, वैराग्य और श्रात्म शान्ति रूप परम धर्म की आराधना करना कौन सी वाड़ाबन्दी है ? सूरीश्वरजी के उक्त स्पष्टीकरण से सन्यासीजी को जैन धर्म की विशेषता का ज्ञान हो गया । उन्होंने तत्काल मिथ्यात्व का वमनकर सम्यक्त्व के साथ श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिये । इधर वीरपुर नगर में सर्वत्र सूरिजी और सन्यासी जी के चमत्कार की बातें होने लगी । जैनियों के हर्ष का पार नहीं रहा । आचार्यश्री के इस अपूर्व प्रभाव ने उनके हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । वे लोग बड़े ही समारोह के साथ स्वागत की तैयारियां करने लगे। इधर वीरपुर नरेश सोनग को आचार्यश्री के चमत्कार का मालूम हुआ तो वह भी आचार्यश्री के दर्शन एवं स्वागत के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हो गया । सूरीश्वरजी के स्वागतार्थ सम्मुख जाने के लिये अपनी चतुरङ्गिनी सेना को खूब सजधज कर तैय्यार करवाई। नगर में चारों ओर यथा समय निर्दिष्ट स्थान पर उपस्थित रहने लिये घोषणा करवादी । बस, फिर तो था ही क्या ! सूर्य देव के सहस्रकिरणों से उदयाचल पर उदय होते ही नर नारियों एक वृहज्भूएड एकदिशा की ओर जाने के लिये प्रोत्साहित होगया | राव सोनग भी अपने राव उमरावों के साथ सूरिजी की सेवा में उपस्थित हुआ । सूरीश्वरजी ने भी अपनी शिष्य भण्डली एवं सन्यासी के साथ नगर में प्रवेश किया। पश्चात् सार्वजनिक सभा में, सारगर्भित धर्मोपदेश दिया जनता पर आचार्यश्री के उपदेश का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। राव सोनग के पूर्वजों ने जैनाचार्यों के पास दीक्षा ली थी अतः आपका घराना कई समय से जैनधर्मोपासक ही था । जैनाचार्य भी समय २ वीरपुर पधार कर राजा प्रजा को धर्मोपदेश दिया करते थे अतः उन सबों के हृदय पर जैनधर्म के स्थायी संस्कार ज हुर थे । राव सोनग यों तो सब प्रकार सुखी थे पर सन्तत्यभाव रूप जबर्दस्त चिन्ता उनको रद्द २ कर सन्तापित करती थी । एक समम मध्याह्न काल में विशेष धर्म चर्चा करने के लिये सूरीश्वरजी की सेवा में राव सोनम उपस्थित हुए तो अन्यान्य बातों के साथ ही साथ वह बात भी प्रसङ्गतः निकल आई। इस पर धैर्यावलम्बन देते हुए सूरिजी ने कहा- राजन ! जैन धर्म कर्म सिद्धान्त को प्रधान मानता है। सिवाय पूर्व सचित कर्मोदय हुए शुभ या अशुभ कार्य हो ही नहीं सकते अतः इस विषय की चिन्ता में श्रार्तध्यान करना निकाचित कम को बन्धना है । सर्व अनुकूल सामग्री के सद्भाव होने पर धर्म साधन करना ही उभय लोक के लिये कल्याणास्पद है । धर्म ही सर्व मनो कामनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष है। जब धर्म से मोक्ष रूप अक्षय सुख की प्राप्ती हो सकती है तब सांसारिक पौद्गलिक सुखों की कीमत ही क्या है । आप जानते हैं कि किसान लोग धान्य की आशा से खेत में बीज बोते हैं किन्तु चारा-घास फूस तो सहज ही में उसके साथ बिना प्रयत्न के हो जाता है । घास के लिये पृथक् बीज बोने या प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती है । अतः समझ सूरिजी का उदेश सन्यासी की दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only १३२७ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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