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________________ वि० सं० ८३७-८९२] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दार व्यक्तियों को चाहिये कि धर्म की करनी केवल मोक्ष प्राप्ति की आशा से ही करें। सांसारिक तुच्छ पौद् गलिक आशाओं में करणी के अमूल्य-मूल्य को हार जाना अदूरदर्शिता है। यह याद रखने की बात है किधर्माराधन के लिये शुद्धोपयोग और शुद्ध योग्य की आवश्यकता है। शुद्ध उपयोग को निवृत्ति और शुभयोग को प्रवृति कहते हैं। निवृत्ति से कर्म निर्जरा होता है और प्रवृत्ति से शुम पुन्य संचय होता है। श्रापको भी मोक्ष प्राप्ति के लिये धर्माराधन में दत्त चित्त रहना चाहिये । अपने पुण्यों पर सन्तोष करके परम निवृत्ति पूर्वक धर्म ध्यान करना चाहिये। सूरिजी के उपदेश से राजा की आत्मा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। उनकी पुत्राभावरूप मानसिक चिन्ता भी सर्वदा के लिये विलीन हो गई । वे बिना किसी पौद्गलिक सांसारिक आशा के धर्म ध्यान में संलग्न हो गये । इस प्रकार सूरिजी के व्याख्यान ने कई लोगों पर कई तरह का प्रभाव डाला। चातुर्मास का समय नजदीक आने से व श्रीसंघ तथा राजा सोनग के अत्याग्रह से आचार्य श्री ने वह चातुर्मास भी वीरपुर में ही कर दिया। आचार्य श्री के चातुर्मास से वीरपुर की जनता को बड़ा ही हर्ष हुआ। सब लोग अपनी २ रूचि के अनुकत कल्याण मार्ग की आराधना करने में संलग्न हो गये। इस चातर्मास के विशेषानन्द का अनुभव तो सन्यासी एवं राव सोनग को हुआ। वे आचार्यश्री के प्रदत्त चातुर्मास के अपूर्व लाभ से अपने श्रापको कृतकृत्य समझने लगे। राव सोनग ने तो प्राचार्यश्री के उपदेश से शासनाधीश भगवान महावीर का नया मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया और सन्यासीजी सूरीश्वरजी की सेवा भक्ति कर ज्ञान ध्यान पढ़ने सुनने में संलम हो गये। जैन शालों का अभ्यास चिन्तवन एव मनन करने के पश्चात् उनके हृदय में एक बात खटनके लग गई। वे सोचने लगे-मैंने साधु होकर के गृहस्थ के व्रत लिये अतः मेरा दर्ता हल्का हो गया है। मुझे गृहस्थों की श्रेणी में बैठना पड़ता है। मैं जैन साधुओं के आचार विचार से अवगत हो चुका हूं अतः मुझे भी साधुत्व वृत्ति स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है। उक्त संकल्प को सुदृढ़ बना सन्यासीजी सूरीश्वरजी की सेवा में आये और अपने मनः संकल्प को शब्दों के रूप में प्रगट करने लगे। सूरिजी ने भी 'जहा सुह' शब्द से उन्हें सन्तोष दिया। सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे अतः दूसरे ही दिन प्रापश्री ने अपने व्याख्यान में प्रसनोपात साध के आचार के विषय में स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया कि-जैन श्रमण दो प्रकार के होते हैं- १-जिनकल्पी २-स्थविर कल्ली। इनमें जिनकल्पी साधु तो पाणि पात्र अर्थात् कुछ भी उपाधि नहीं रखते हैं। सुधादि परिपड़ों से सन्तापित होने पर गृहस्थों के यहाँ भिक्षार्थ जाकर जो कुछ समय पर मिलता है; हाथ में लेकर भिक्षा कर लेते हैं। कई २ जिनकल्पी कुछ उपकरण विशेष भी रखते हैं। वे कम से कम रजोहरण और मुख दधिका और अधिक से अधिक बारह उपकरण रख सकते हैं-तथाहि पत्तं? पत्ताबंधो२ पायहवयं३ च पायकेसरिया । पडलाइं५ रयत्ताण६ गुच्छो पायनिजोगो ।। तिन्नेव य पच्छागा१० स्यहरणं११ चेत्र होइ मुइपत्ति । एसो दुवालस विहो उवहि विणकप्पियाणं तुः ।। उक्त बारह और दो के बीच की संख्या में उपकरण रखना जिनकल्ली के मध्यम अकरण कहे जाते हैं। एतोचेव दुवालस्स मत्तग१ अइरेग चोलपट्टो य । एसो चउद्दस विहो उवहि पुण बेरकप्पंमि ॥ १३२८ राव सोनग को सूरिजी का उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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