________________
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
यतियों के अपना द्वार कौन खुला रक्खे ? बस, सिद्ध भी एक जैन साधुओं के उपाश्रय के द्वार को खुला हुआ देख कर उसके अन्दर गया तो ज्ञान ध्यान में संलग्न बैठे हुए एक आचार्य को देखा । आचार्यश्री की दृष्टि भी सिद्ध के ऊपर पड़ी । उन्होंने सिद्ध को उपदेश देना प्रारम्भ किया - महानुभाव ! संसार आसार है, लक्ष्मी चञ्चल है, कौटुम्बिक सब स्वार्थ मय सम्बन्ध हैं, शरीर अनित्य है और अयुष्य स्थिर है, अतः मनुष्य भव योग्य प्राप्त उत्तम सामग्री का सदुपयोग कर आत्म-कल्याण करना ही बुद्धिमता है। सूरिजी के उपदेश ने सिद्ध की भव्यात्मा पर इस कदर प्रभाव डाला कि उसकी इच्छा संसार का त्याग कर सूरिजी के पास दीक्षा लेने की होगई, इस पर गर्गर्षि ने कहा हम जैन श्रमण हैं। बिना माता पिता की आज्ञा दीक्षा दे नहीं सकते हैं । क्योंकि इससे हमारा तीसरात्रत खण्डित हो हमें अदत्ता दान दोष का भागी होना पड़ता है ।
वि० [सं० ७७८-८३७ ]
2
इधर प्रभात में सिद्ध के नहीं आने से उसके घर में बड़ी हलचल मच गई । श्रेष्ठी शुभंकर ने स्वयं पुत्र की शोध में समस्त नगर को शोध डाला । इतने में उपशम अमृत की उर्मिराशि में ओत-प्रोत विचित्र स्थिति युक्त पुत्र को साधुओं के उपाश्रय से आते हुए देखकर पिता ने कहा- पुत्र साधुओं को सत्संग से मुझे बहुत संतोष है पर व्यसनी पुरुषों की कुसंगति तो केतुग्रह के समान निश्चचित ही दुःखोत्पादक थी । वत्स ! अब घर चलो, तुम्हारी माता उत्कंठित हो, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है । तुम्हारे बिना वह हर तरह से सन्तापित है। सिद्ध ने विनय पूर्वक कहा - तात ! मेरा हृदय गुरु चरण कमल में भ्रमरवत् कीन हो गया है, अब किसी भी प्रकार की अन्य अभिलाषा न कर जैन दीक्षा स्वीकार करने की मेरी इच्छा है अतः आप सहर्ष आज्ञा प्रदान करें । 'जहां द्वार खुले हों वहां चला जा' माता के इन वचनों का पालन भी तभी हो सकता है । पिताजी ! इन वचनों के सत्य सिद्ध करूंगा तभी मेरी अखण्ड कुलीनता गिनी जाएगी ।
पुत्र के वचनों को सुन शुभंकर असमंजस में पड़ गया। बह बोला -बेटा ! अपने अपार धन राशि है | दान पुण्य के कार्यों में उसका सदुपयोग कर अपने जीवन को गृहस्थावस्था में रह कर ही सफल बना । तेरी माता के तू इकलौती संतान है और तेरी बहू भी संतान रहित है अतः हम सब का तू ही एक आधार है । वत्स ! मेरे वचनों की श्रवगणना मत कर !
सिद्धू बोला -- पिताजी ! इन लोभ के वचनों से मेरे ऊपर असर होने वाला नहीं है । मेरा मन ब्रह्मचर्य में लीन हो गया है अतः गुरु के पैरों में पड़ कर ऐसा कहो कि गुरुवर्य ! मेरे पुत्र को दीक्षा दो । इसी में मुझेसंतोष एवं आनन्द हो ।
सिद्धपुत्र का अत्याग्रह देख, शुभंकर सेठ को उसी प्रकार कहना पड़ा । पवित्र मुहूर्त में गुरु महाराजने उसको दीक्षा दे दी । पश्चात् मास प्रमाण तपस्या करवा कर शुभ लग्न में पञ्च महाव्रत के श्रारोपण के समय में गुरु महाराज ने अपनी पूर्व गच्छ परम्परा सुनाते हुए कहा - वत्स ! सुन - पहिले श्री व स्वामी थे । उनके शिष्य श्रीवत्रसेन हुए । वज्रसेनसूरि के निनामेन्द्र, वृत्ति, चंद्र और विद्याधर ये चार शिष्य हुए । निवृत्त गच्छ में बुद्धि निधान सूराचार्य हुए। उन्हीं का शिष्य गर्गर्षि मैं तेरा दीक्षा गुरु हूँ । तुझे निर न्तर अठारह हजार शीलांग धारण करने का है, कारण चारित्र की उज्वलता का यही फल है ।
I
गुरु की शिक्षा को स्वीकार कर सिद्धर्षि ने उप्रतप प्रारम्भ किया। और वर्तमान साहित्य का अभ्यास कर उन्होने उपदेशमाला की बालावबोधिनी वृत्ति बनाई। इस पर कुवलयमाला नामक कथा के रचयिता इनके गुरुभाई दक्षिण- चन्दसूरि ने समारादित्य कथा की विशेषता बताते हुए कहा कि - तुम्हारे जैसे इधर उधर के ग्रंथों
१२३२
Jain Education International
जहां रात्रि में द्वार खुले हों चले जाओ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org