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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] ग्रावार्य सिद्धा सूरि मरुधर की मनोहर भूमि पर श्रीमालनगर जिनचैत्यों से सुशोभित था । ऐतिहासिक क्षेत्रों में इस नगर का आसन सर्वोपरि है। यहां पर वर्मताल नामक राजा राज्य करता था । चार बुद्धि का निधान रूप राज्य नीति परायण सुप्रभ नाम का राजा के प्रधान मन्त्री था जो राज तन्त्र चलाने में सर्व प्रकार से समर्थ था । स्कंध के समान सर्वभार को वहन करने वाले उस मंत्री के दत्त और शुभंकर नाम के दो पुत्र थे । इन में दत्त कोट्याधीश था और उसके माघ नामक पुत्र था । वह प्रसिद्ध पण्डित और विद्वद्जनों की सभा को रंजन करने वाला था । राजा भोज की ओर से उसका अच्छा सत्कार हुआ करता था। दूसरे शुभंकर श्रेष्ठी के लक्ष्मी नाम की प्रिया थी । इनकी उदारता और दानशीलता की प्रशंसा स्वयं इन्द्र महाराज अपने मुंह से करते थे । इच्छित फल को देने में कल्पवृक्ष के समान इनके एक पुत्र था जिसका नाम सिद्ध था । जब सिद्ध कुमार ने युवावस्था में पदार्पण किया तो उसके माता पिता ने उसकी शादी एक सुशीला, सदाचारिणी, सर्वकला कोविदा, सर्वाङ्ग सुंदरी श्रेष्टि पुत्री के साथ कर दी । कर्मों की विचित्र गति के कारण सिद्ध कुमार के घर में अपार लक्ष्मी के होने पर भी कुसंगति के फल-स्वरूप वह जुनारी होगया । यहां तक कि केवल क्षुधाशांति की गर्ज से ही वह घर का मुंह देखता था । रात्रि की परवाह किये बिना श्राधी रात तक भी कभी घर आने का नाम नहीं लेता था । जब आता भी था तो वैरागी योगी की भांति रहता था इससे सिद्ध की स्त्री महान् दुःखी होगई । बिना रोग के ही उसका शरीर कृष होने लगा । एक दिन सासु ने कहा बहू ! क्या तेरे शरीर में कोई गुप्त रोग है ? जिसके विषय में लज्जा के मारे अभी तक तू कुछ भी नहीं कह सकी है। तू स्पष्ट शब्दों में तेरे दिल में जो कुछ भी दर्द हो कह दे, मैं उसका उचित उपाय करूंगी । सासुजी के अत्याग्रह करने पर उसने कहा- पूज्य सासुजी ! मुझे और तो कुछ भी दुख नहीं है पर आपके पुत्र रात्रि में बहुत देर करके आते हैं और आने पर योगी की तरह बिना अपराध ही मेरी उपेक्षा करते रहते हैं अतः मारे चिन्ता एवं उद्विग्नता से मेरी यह हालत हो रही है। इस पर सासु ने कहा- बहु ! तू इस बात का तनिक भी रंज मत कर । मैं पुत्र को अच्छी तरह से समझादूगी । आज तू निश्चय होकर सो जा । उसके आने पर द्वार मैं खोल दूंगी। बस, सासु के वचनों के आधार पर बहु तो सो रात्रि व्यतीत हो गई तो सिद्ध ने आकर किवाड़ खट खटाये और पर माता ने कृत्रिम को बतला कर कहा- बेटा ! इतनी देरी से जागृत हो रहा करें । इस समय जहाँ द्वार खुला हुआ हो वहां चले जाओ, यहां द्वार नहीं खोला जायगा | माता के सरल किन्तु व्यङ्ग पूर्ण वचनों को सुन कर सिद्ध चला गया । इतनी रात्रि के चले जाने पर सित्राय योगी [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ आचार्य सर्प का जीवन गई और माता जागृत रही । जब बहुत किवाड़ खोलने के लिये आवाज दी । इस आता है तो क्या तेरे लिये सारी रात्रि भी * पथि संञ्चरतांतेषां निशि सङ्गत्य भारती आदेशं प्रददे वाचा प्रसादातिशय स्पृशा ४२ स्वस्वदर्शन निष्णाता ऊर्ध्वहस्तेस्वयाकृते । चतुरङ्ग सभाध्यक्ष विद्व विष्यन्ति वादिनः । ४३ सको योजनं धारानगरीतः समागत् । तस्य तत्र गतत्स्य श्रीभोजो हर्पेण संमुखः । ४४ एकैक बादि विजये पर्णसंविदधेतदा । मदीया वादिनः केन जय्य इत्यभि सन्धित्ताः । ४५ लक्षलक्षं प्रदास्यामि विजये वादिनं प्रति । गूर्जरस्य बलं वीक्ष्यं श्वेतभिक्षोंर्मया ध्रुवम् ॥ ४६ शान्ति नम्ना प्रसिद्धोऽस्ति वेतालो वादिदेनाँ पुनः । ततोवादं निपेध्यासौ सम्मान्यतः प्रहीयते । ५२ भुव मुत्खयतस्मिञ्च दर्शिते गुरुवोऽमृतम् । तत्त्वं स्मृत्वाऽस्पृशन् देहंदृष्ट इचासौ समुस्थित । ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only १२३१ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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