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वि० सं० ७७८ से ८३७ ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
देव सेठ के पुत्र पद्म को सर्प ने काट खाया था । सविशेष मन्त्रोपचार करने पर भी स्वस्थ न होने से स्वजनों ने भविष्य की आशा पर एक खड्डे में उसे रख दिया। कुछ समय के पश्चात् अपने शिष्यों के द्वारा सूरिजी को मालूम होने पर वे स्वयं जिनदेव के घर गये और उसको बतलाने के लिये कहा । जिनदेव भी प्रसन्न हो गुरुदेव के साथ स्मशान में गया और उसे बाहिर निकाला। प्राचार्य ने अमृत तत्व का स्मरण कर उस पर हाथ फेरा जिससे वह जीवित होगया। इससे उन लोगों की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा और वे सब गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े। कृतज्ञता सूचक शब्दों से आचार्यदेव की स्तुति कर उनका बहुत आभार माना।
__ वादीवैताल शान्तिसूरि धुरंधर विद्वान, महान कवि, चमत्कारी, विद्या से विभूषित जैनशासन की प्रभावना करनेवाले प्राचार्य थे। आपने अपने शिष्यों को स्व पर मत की वाचना देकर विद्वान बनाये थे । वाद विवाद करने में वे सिद्धहस्त या पूर्ण कुशल थे। धर्म नाम के उद्भट विद्वान वादी को तो लीलामात्र में ही परास्त कर दिया जिससे वह तत्काल ही सूरिजी के चरण कमलों में नतमस्तक होगया।
एक समय आचार्यश्री के पास द्राविड़ देश का वादी श्राया पर वह वादमें पशु की भांति निरुत्तर हुआ। एक दिन अव्यक्तवादी सूरिजी के पास आया परन्तु वह भी सूरिजी के असाधारण पाण्डित्य के सम्मुख लजित हो वापिस चला गया इससे प्रभावित हो जन-समाज कहने लगा-जब तक शान्तिसूरि रूप सहस्त्ररश्मि धारक सूर्य प्रकाशित है तब तक वादो रूप खद्योत निस्तेज ही रहेंगे।
एक समय शान्तिसूरिजी थरापद्र नगर में पधारे। वहां नागिन देवी व्याख्यान के समय नृत्य करने को आई । सूरिजी ने उसके पट्टपर बैठने के लिये वासक्षेप डाला । इस प्रकार के प्रतिदिन के क्रम से आचार्यश्री और देवी के वासक्षेप डालने, लेने की एक प्रवृत्ति पड़ गई। किसी एक दिन सूरिजी वास-क्षेप डालना भूल गये अतः पट्ट पर न बैठ कर देवी आकाश में ही स्थित रही। जब रात्रि को शयन करने का समय आया तो देवी उपालम्भ देने के लिये सूरिजी के स्थान पर आई। देवी के दिव्य रूप को देख कर सूरिजी ने अपने शिष्य से कहा हे मुने ! क्या यहां कोई स्त्री आई है ? शिष्य ने कहा-गुरुदेव ! मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ इतने ही में देवी ने आकर कहा-प्रभो! आपके वासक्षेप के अभाव में मैं खड़ी रहीतो मेरे पैरों में पीड़ा होगई है । आप जैसे प्रज्ञावानों को भी इतनी सी बात विस्मृत हो जाय यह आश्चर्य की बात है । अब आपका आयुष्य केवल ६ मास का ही रहा है अतः परलोक की आराधना और गच्छ की व्यवस्था शीघ्र कीजिये । इतना कह कर देवी अदृश्य होगई ।
प्रातःकाल होते ही सूरिजी ने गच्छ एवं संघ की अनुमति लेकर अपने ३२-शिष्यों में से तीन मुनियों को श्राचार्य पद अर्पण किया जिनके नाम वीरसूरि, शातीभद्रसूरि और सर्वदेवसूरि हैं । ये तीन आचार्य मानों ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्रति मूर्ति ही हैं। इनमें वीरसूरि की सम्तान अभी नहीं है पर दोनो सूरियों की सन्तान आद्यावधि विद्यमान है ।
प्राचार्य वादीवैताल शान्तिसूरीश्वर यश श्रावक के पुत्र सोढ़ के साथ चल कर रेवताचल आये और मिनेनाथ भगवान् के ध्यान में संलग्न हो २५ दिन का अनशन स्वीकार कर समाधि के साथ वि० सं० १०९५ ज्येष्ठ शुक्ला नौमि मंगलवार कार्तिका नक्षत्र में आचार्य वादीवैताल शात्ति सूरि स्वर्ग के अतिथि हुए । श्राचार शान्तिसूरि चैत्यवासियों में अप्रगण्य नेताओं की गनती में महान् प्रभाविक जैन धर्म का उद्योत करने वाले वादीवेतालविरुद्ध धारक महा प्रभाविक आचार्य हुए । के
आचर्यश्री ने वादियों को परास्त
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