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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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के घरपर आये तो धनपाल बहुत खुश हुआ ओर अपने विशाल भूमिगृह में छिपा दिया ।
ठीक उसी समय तम्बोली लोग पान के टोकरे लेकर गुर्जर प्रान्त में जा रहे थे । धनपाल ने उनको इच्छानुकूल विपुल द्रव्य देकर कहा-मेरे भाई को सकुशल गुर्जरप्रान्त में पहुँचा देना । तम्बोलियों ने स्वीकार कर लिया । धनपाल ने तम्बोलियों को एक सौ स्वर्ण दीनारें इनायत करदी अतः तम्बोलियों ने सूराचार्य को सुरक्षित रख्न क्रमशः गुर्जर प्रान्त में पहुंचा दिया । जब गुरु द्रोणाचार्य और राजा भीमने सुना कि सूराचार्य भोजराजा की सभा को विजय कर निर्विघ्न तय गुर्जर भूमि में आरहे हैं तो उन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ स्वागत करने की तैय्यारियां की।
गज, अश्व, रथ पैदल लेकर राजा भीम तथा असंख्य नागरिक स्त्री पुरुष स्वागतार्थ सूराचार्य के समक्ष गये । नगर को शृंगार कर गाजे बाजों की ध्वनि से गगन गुंजादिया। क्रमशः जयध्वनि के साथ सूराचार्य अपने गुरु की सेवा में-चैत्य में आया। राजा और प्रजा ने सूराचार्य के साहस एवं पाण्डित्य की भूरिर प्रशंसा की और कहा-भोजराजा की सभा को जीतकर जीवित चले आना श्राप जैसे विचक्षणो का ही काम है, इस प्रकार गुरु महाराज ने भी सूराचार्य की विद्वत्ता एवं चतुर्यता की शोभा की।
पिछे राजा भोजके आदमियोंने उपाश्रयमें जाकर निगाह की तो एक आदमी साधु का वेश पहना हुआ उपाश्रय में बैठा था जब राजपुरुषों ने उस साधु को सूराचार्य के विषय में पूछा तो उसने कहा मैं सूराचार्य को नहीं जानता हूँ मैं तो सदैव से यही रहने वाला साधु हूँ इत्यादि उन आदमियों ने सोचा कि इसमें अपनी ही भूल हुई है कि पानी लाने वाले साधु को जाने दिया वास्तव में वही सूराचार्य थे पर अब क्या हो यदि सत्य बात कही तो अपन ही मारे जायगे । तथापि राजा से अर्ज की कि हे धराधिप ! धनपाल की कार्रवाई से आचार्य उपाश्रय में नही मिला है अतः धनपाल के घर की तपास करना चाहिये । वस । राजा ने धनपाल का तमाम घर, तलघर वगैरह देखा पर धनपाल साफ इन्कार हो गया कि मैंने तो सूराचार्य को राज सभा में ही देखा था न जाने किस के जरिये क्या हुआ हैं। इस बात का राजा भोज ने बडा भारी पश्चाताप किया कि गुर्जर के श्वेताम्बर आचार्य धारा के पण्डित और राज सभा की इज्जत ले गया। खैर कुछ अर्सा से राजा ने सुन लिया कि परम पण्डित और धुरंधर विद्वान सूराचार्य गुर्जर भूमि में पहुच गये हैं फिर तो वे कर ही क्या सकते । राजा भोज को इतना तो ज्ञान हो गया कि मैं मेरी राज सभा के पण्डितों का अभिमान रखता हूँ यह व्यर्थ ही है श्वेताम्बर विद्वानों के सामने हमारी राज सभा कुछ भी गिनती में नहीं है इतना ही क्यों बल्कि कई पण्डितपन का ढोंग रख कर व्यर्थ ही मेरे से द्रव्य ले जाते हैं इत्यादि
द्रोणाचार्य के स्वर्गवास के पश्चात् गच्छ का भार सूराचार्य ने सम्भाला । आप सदाचारी उपविहारी और सुविहित शिरोमाणि थे। आपने जैन शासन रूप आकाश में सूर्य के भांति सर्वत्र प्रकाश कर धर्म की बहुत ही प्रभावना की। वादीजन तो आपश्री का नाम सुनते ही घबरा जाते थे। श्रापका शिष्य समुदाय भी बड़ा विद्वान था । जब सूराचार्य ने अपना आयुष्य समय नजदीक जाना तो अपने पट्ट पर योग्य मुनि गर्षि को श्राचार्य पद अर्पण कर आपने २५ दिन के अनशन से समाधि पूर्वक स्वर्गवास किया। इस प्रकार महा. प्रभावक सूराचार्य के चरण कमलों में कोटि २ नमस्कार हो ।
द्रोणाचार्य उस समय के चैत्यवासियों में अप्रगण्य नेता थे। जिन्हों के पास आचार्य अभयदेव सूरि ने अपने रचित आगमों की टीकाओं का संशोधन करवाया था जिसका समय विक्रम संवत् ११२० से
सूराचार्य का पुनःपाटम में प्रवेश
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