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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ११७८-१२३७ ११२८ के बीच का माना जाता है। इन द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचाय थे जिनकी विद्वत्ता की पाक से वादियों के समूह घबड़ा घबड़ा कर दूर भागते थे । ___ कई लोग यह भी कहते हैं कि प्राचार्य जिनेश्वरसूरि ने वि० सं० १०८० में पाटण का गजा दुर्लभ की राज सभा में सूराचार्य को परास्त किया ? पर उपरोक्त घटनाएँ एवं समय का विचार करने पर पाया जाता है कि वि० सं० १०८० में सूराचार्य को श्राचार्य पद तो क्या पर उनकी दीक्षा भी शायद ही हुई हो। हा राजा भीम के समय सूराचार्य उनकी सभा का एक असाधारण पण्डित था और राजा भीम का राजत्वकाल मि० सं० १०७८ से ११२० का तथा राजा भोज का समय वि० सं० १०७८ से १०९९ का है इससे पाया जाता है कि सं० १०८० में नही पर इस समय के बाद ही सूराचार्य आचार्य पद पर आसढ़ हुआ होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि न तो जिनेश्वरसूरि और सूराचार्य का राजादुर्लभ की राज सभा में शास्त्रार्थ हुआ न चैत्यवासीयों का किसे ने पराजय किया और न राजा दुर्लभ ने किसी को खरनर विरुदहीं दिया था इस विषय का विशेष खुलासा खरतर मतोत्पति प्रकरण में दिया जायगा । प्राचार्य श्रीनमयदेवसरि मालव प्रान्त में उच्च २ शिखरों व स्वर्णमय दण्ड कलशों से सुशोभित, धन धान्य में समृद्धिशाली स्वर्गपुरी से स्पर्धा करने वाली धारा नाम की एक विख्यात नगरी थी। वहां पर पण्डितों का सहोदर एवं श्राश्रयदाता राजा भोज राज्य करता था। धारानगरी में यों तो सैकड़ो हजारों कोट्याधीश व्यापारी रहते थे पर उनमें लक्ष्मीपति नामका एक विख्यात व्यापारी था जो धन में कुबेर के समान व याचकों के लिये कल्पवृक्ष वत् अाधारभूत तथा धर्म में सदा तत्पर रहने वाला था। ____ एक समय मध्यप्रान्त की ओर से दो ब्राह्मण जो वेद वेदान, श्रुति, स्मृति, पुराण, एवं चौदह विद्याओं में निपुण थे धारानगरी में आये। उन दोनों के नाम क्रमशः श्रीधर और श्रीपति थे। क्रमशः चलते हुए वे लक्ष्मीपति सेठ के यहां भिक्षा के लिये आये और सेठजी ने उनकी भव्याकृति को देखकर सम्मान पूर्वक उन्हें भिक्षा प्रदान की। उस समय लक्ष्मीपति सेठ के यहां एक भीत पर बीस लक्ष टकाओं वाला एक लेख लिखाया जारहा था । अस्तु, वे दोनों ब्राह्मण सेठजी के वहां हमेशा भिक्षार्थ आते और अपनी बुद्धि प्रबलता के कारण उस लेख को पढ़ पढ़ कर याद कर लिया करते । ___एक समय धारानगरी जल जाने से सेठजी के घर के साथ लेख भी जल गया जिससे सेठजी को बहुत ही दुख हुमा । जब प्रतिदिन के क्रमानुसार वे दोनों बाह्मण सेठजी के घर भिक्षार्थ आये तो सेठजी ने उनको अपने दुःख की सारी बात कह सुनाई। इस पर उन ब्राह्मणों ने उस लेख को ज्यों का त्यों लिख दिया इससे सेठजी बहुत संतुष्ट हुए और उन दोनों विप्रों को भी खूब प्रीतिदान देकर संतुष्ट किया। उनकी बुद्धि एवं कुशलता देख कर सेठजी विचारने लगे कि ये दोनों मेरे गुरु के शिष्य हो जावें तो अवश्य ही शासन का उद्योत करने वाले होंगे। मरुधर के सपादलक्ष प्रान्त में कुर्चपुर नामका नगर है। यहां पर अल्ल राजा का पुत्र भुवनपाल राजा राज्य करता था। वहां पर चौरासी चैत्यों के अधिपति श्री वर्धमान सूरि नाम के प्राचार्य थे । वे शास्त्रों का अध्ययन कर चैत्यवासत्याग कर विहार करते हुए धारानगरी में पधारे । सेठ लक्ष्मीपति भी सूरिजी का भागआचार्य अभयदेव मूरि १२४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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